अंग दर्द सिंड्रोम 


के संस्करण 2016
diagnosis
treatment
causes
Limb Pain Syndromes
अंग दर्द सिंड्रोम
अंग दर्द सिंड्रोम, काम्प्लेक्स रीजनल पेन सिंड्रोम टाइप १, एरीथ्रोमीलालजिया, ग्रोइंग पेन्स, बीनाइन हाइपरमोबिलिटी सिंड्रोम, ट्रांसिएंट साइनोवाइटिस, पटेलो-फेमोरल पेन, स्लिपड कैपिटल फेमोरल एपीफाईसिस, ऑस्टिओकोंड्रोसिस, लेग्ग काल्व पर्थेस डिजीज, ऑसगुड श्लैटर डिजीज, सीवर्स डिजीज,फ्रीबर्ग डिजीज, शरमन डिजीज
evidence-based
consensus opinion
2016
PRINTO PReS
१. प्रस्तावना
२. क्रोनिक वाइडस्प्रेड पेन सिंड्रोम(इसे पहले जुवेनाइल फाइब्रोमाईआलजिया सिंड्रोम कहा जाता था)
३.काम्प्लेक्स रीजनल पेन सिंड्रोम टाइप १:
(पर्यायवाची: रिफ्लेक्स सिम्पैथेटिक डिस्ट्रॉफी,लोकलाईज़ेड इडिओपथिक मस्कुलोस्केलेटल पेन सिंड्रोम)

४. एरीथ्रोमीलालजिया
५. ग्रोइंग पेन्स
६. बीनाइन हाइपरमोबिलिटी सिंड्रोम
७. ट्रांसिएंट साइनोवाइटिस
८. पटेलो-फेमोरल पेन
९. स्लिपड कैपिटल फेमोरल एपीफाईसिस
१०. ऑस्टिओकोंड्रोसिस(पर्यायवाची:अवैस्कुलर नेक्रोसिस, ऑस्टिओनेक्रोसिस)



१. प्रस्तावना

बच्चों में पायी जाने वाली कई बिमारियों में अंग में दर्द की तकलीफ हो सकती है|अंग दर्द सिंड्रोम,यह नाम उन बिमारियों के समावेश को दिया जाता है जिनमें भिन्न कारणों से अंग में लगातार या फिर रुक रुक कर दर्द रहता हो|इस का निदान करने के लिए विशेषज्ञ को जानी हुई बिमारियों के लिए जाँचें करवानी होती हैं,जिनमें से कुछ बीमारियां गंभीर भी हो सकती हैं|


२. क्रोनिक वाइडस्प्रेड पेन सिंड्रोम(इसे पहले जुवेनाइल फाइब्रोमाईआलजिया सिंड्रोम कहा जाता था)

२.१. यह क्या होता है?
फाइब्रोमाईआलजिया,"एम्पलीफाईड मांसपेशियों व् अंगों के दर्द" के समूह की श्रेणी में आता है|फाइब्रोमाईआलजिया एक ऐसा सिंड्रोम या तकलीफों का समूह है जिनमें हाथों, पैरों,छाती,जबड़े,गर्दन व् कमर में लम्बे समय तक दर्द महसूस होता है|यह दर्द कम से कम तीन माह से अधिक रहने पर उसे फाइब्रोमाईआलजिया की श्रेणी में रखा जाता है| इस प्रकार के दर्द के साथ साथ ही नींद पूरी न होना,हर समय थकान महसूस होना,ध्यान केंद्रित न कर पाना,स्मरणशक्ति में कमी आना भी इसी समूह में आते हैं|

२.२ यह बीमारी कितनी आम है?
यह बीमारी अधिकतर व्यस्कों में पायी जाती है|बच्चों में ख़ास तौर से किशोरावस्था में यह बीमारी लगभग १ प्रतिशत बच्चों में पायी जाती है|
लड़कियों में यह तकलीफ लड़कों से अधिक देखी जाती है|इस तकलीफ से पीड़ित बच्चों के कई लक्षण काम्प्लेक्स रीजनल पेन सिंड्रोम के लक्षणों से मिलते हैं|

२.३.इस बीमारी के मुख़्य लक्षण क्या होते हैं?
इस बीमारी में दर्द अलग अलग अंगों में होता है व् इसकी तीव्रता प्रत्येक बच्चे में भिन्न हो सकती है|दर्द हाथों, पैरों,छाती,पेट,जबड़े,गर्दन व् कमर कहीं पर भी हो सकता है|
इस तकलीफ से पीड़ित बच्चों को नींद पूरी न हो पानी व् हर समय थकान महसूस करने की शकायत भी रहती है|कार्य करने की क्षमता भी काम हो जाती है|
इस तकलीफ में अधिकतर सिर दर्द व् अंग में सूजन की शिकायत रहती है(अंग में सूजन दिखाई नहीं देती पर अंग में सूजन महसूस होती है),अंग में सुन्नपन व् हाथों,पैरों का नीला पड़ जाना भी इस बीमारी के लक्षण हैं| इन लक्षणों के कारण चिंता व् अवसाद पैदा हो सकता है व् स्कूल से अनुपस्थिति भी रहती है|

२.४. इस बीमारी का निदान किस प्रकार किया जाता है?
इस बीमारी के निदान के लिए शरीर के तीन भागों में दर्द,जो तीन माह से अधिक समय तक रहे व् साथ में थकान,नींद पूरी न होना अथवा संज्ञानात्मक लक्षण(ध्यान,शिक्षा, तर्क, स्मृति, निर्णय लेने और समस्या को सुलझाने की क्षमता)पाये जाने पर किया जा सकता है| कई मरीज़ों को कुछ स्थानों पर मांसपेशियों को दबाने से दर्द महसूस होता है(ट्रिगर पॉइंट्स),पर यह लक्षण निदान के लिए आवश्यक नहीं होता|

२.५. हम इस रोग का इलाज कैसे कर सकते हैं?
इस बीमारी से उत्पन्न हुई चिंता एक महत्वपूर्ण मसला होती है|चिकित्सक को इस बारे में माता पिता को निश्चिंत करना चाहिए की हालाँकि बच्चे का दर्द असली है व् बहुत तीव्र है पर फिर भी वह बच्चे के जोड़ों व् मांसपेशियों को नुकसान नहीं पहुंचा रहा है|
इस बीमारी के इलाज का एक महत्वपूर्ण व् प्रभावशाली पहलु कार्डिओ वैस्कुलर फिटनेस प्रशिक्षण कार्यक्रम होता है जो धीरे धीरे बच्चे के सामर्थ्य के अनुसार बढ़ाया जाता है|इस बीमारी में तैराकी भी एक बहुत अच्छा व्यायाम होता है|संज्ञानात्मक व्यवहार थेरेपी(कॉग्निटिव बीहैवियर थेरेपी)भी अलग अलग या एक छोटे समूह में दी जा सकती है|इस सबके बाद कुछ बच्चों को नींद की गुणवत्ता बढ़ने के लिए दवा दी जा सकती है|

२.६. इस बीमारी का प्रोग्नोसिस क्या होता है?
पूर्ण रूप से ठीक होने के लिए बच्चे की मेहनत व् उसके परिवारजनों के सहारे की अहम भूमिका रहती है|वयस्कों की तुलना में इस बीमारी से पीड़ित बच्चे जल्दी ठीक हो जाते हैं|नियमित रूप से व्यायाम करना अति आवश्यक होता है|मनोवैज्ञानिक सहारा,नींद,अवसाद व् चिंता के लिए दवा,इन सभी के सहारे से यह बीमारी काबू में लाई जा सकती है|


३.काम्प्लेक्स रीजनल पेन सिंड्रोम टाइप १:
(पर्यायवाची: रिफ्लेक्स सिम्पैथेटिक डिस्ट्रॉफी,लोकलाईज़ेड इडिओपथिक मस्कुलोस्केलेटल पेन सिंड्रोम)


३.१.यह क्या होता है?
यह अंगों में होने वाला तीव्र दर्द होता है जिसका कोई कारण ज्ञात नहीं होता व् जिसके साथ त्वचा में परिवर्तन भी देखे जाते हैं|

३.२. यह कितनी आम बीमारी है?
यह कितनी आम बीमारी है इस बारे में ठीक से जानकारी नहीं है|यह बीमारी किशोरों में(औसतन १२ वर्ष की आयु में) खास कर लड़कियों में पायी जाती है|

३.३.इस बीमारी के प्रमुख लक्षण क्या होते हैं?
आमतौर से अंगों में लम्बे समय से अत्यधिक दर्द होता है जिसकी तीव्रता बढ़ती रहती है और विभिन्न दवाओं का असर नहीं होता|अधिकतर समय के साथ प्रभावित अंग को इस्तेमाल करने में भी तकलीफ महसूस होने लगती है|
हलके स्पर्श जैसी अनुभूतियाँ जो आमतौर से दुखदाई नहीं होती वह भी इन बच्चों को अधिक दुखदाई महसूस होती हैं,इसे "ऐलोडाईनिआ"कहते हैं|
यह लक्षण बच्चों की दिनचर्या को भी प्रभावित करते हैं जिसकी वजह से उनकी शिक्षा पर भी प्रभाव पड़ता है|
समय के साथ कुछ बच्चों के अंगों में सूजन होना या पसीना आना ,रंग में परिवर्तन(सफ़ेद पड़ जाना या बैंगनी धब्बे पड़ जाना) इत्यादि हो सकता है|बच्चे प्रभावित अंग को इस्तेमाल नहीं करते व् उसको विभिन्न मुद्रा में रखते हैं|

३.४. इस रोग का निदान कैसे किया जाता है?
कुछ वर्ष पहले तक इस बीमारी को विभिन्न नामों से जाना जाता था परन्तु अब इस बीमारी को सभी चिकित्सक काम्प्लेक्स रीजनल पेन सिंड्रोम कहते हैं|इसके निदान के लिए कई प्रकार के मानदंडों का प्रयोग किया जाता है|
इस बीमारी का निदान बहुत हद्द तक इसके लक्षणों को पहचान कर किया जाता है जैसे शारीरिक जांच और विशेष प्रकार का दर्द (जो तीव्र व् लम्बे समय तक रहने वाला होता है,जिसमें अंग का इस्तेमाल करने में तकलीफ रहती है,दवाओं का असर नहीं होता व् ऐलोडाईनिआ होता है)
रोगी के द्वारा बताये गए व् चिकित्सक द्वारा देखे गए लक्षणों के संयोजन से इस बीमारी के निदान के निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है|इस के निदान के लिए यह भी आवश्यक है की मरीज को ऐसी कोई भी बीमारी न हो जिसका इलाज बच्चों के चिकित्सक के द्वारा किया जाता हो|इसके बाद ही बच्चे को बच्चों के गठिया रोग विशेषज्ञ को मिलना चाहिए|लेबोरेट्री की जाँच साधारणतय ठीक होती हैं व् एम आर आई में हड्डी,जोड़ अथवा मांसपेशी में कोई विशेष तकलीफ दिखाई नहीं देती|

३.५.इस बीमारी का इलाज कैसे करते हैं?
फ़िज़ियोथेरेपिस्ट व् ऑक्यूपेशनल थेरेपिस्ट के निर्देशन में एक बेहतरीन व्यायाम के क्रम को करना इस बीमारी का मुख़्य इलाज है|साइको थेरेपी का इस्तेमाल ज़रुरत पड़ने पर किया जा सकता है|इन सब के साथ या अलग से कुछ और चिकित्सा पद्दत भी इस्तेमाल की गयी हैं,जैसे अवसाद दूर करने की दवा,बायो फीड बैक,त्वचा के नीचे इलेक्ट्रिक नर्व स्टिमुलेशन व् व्यवहार संशोधन| इन सभी का नतीजा लगभग एक सा ही है|दर्द कम करने की दवा से आमतौर से कोई असर नहीं होता है| फिलहाल इस बीमारी के होने के कारन का पता लगाने व् उसी मुताबिक उसका इलाज करने पर फिलहाल अनुसन्धान चल रहा है| इस बीमारी का इलाज सबके लिए कष्टप्रद होता है: बच्चे,परिवारजन व् इलाज करने वाली टीम|इस बीमारी के कारण होने वाली मानसिक चिंता के लिए मनोवैज्ञानिक सलाह की आवश्यकता पड़ती है|इस बीमारी में इलाज तब नाकाम होता है जब परिवारजन इसके निदान को मान नहीं पाते व् इसके लिए सुझाये गए इलाज की सभी पध्दतियों का पालन नहीं करते|

३.६. इस बीमारी का प्रोग्नोसिस क्या होता है?
व्यस्कों की तुलना में बच्चों में इस बीमारी का प्रोग्नोसिस बेहतर होता है|इसके साथ ही इस बीमारी से पीड़ित बच्चे व्यस्कों की तुलना में जल्दी ठीक हो जाते हैं|हालाँकि पूर्ण रूप से ठीक होने में समय लगता है व् यह अवधि प्रत्येक बच्चे में अलग होती है|समय पर निदान व् इलाज से प्रोग्नोसिस बेहतर होता है|

३.७. रोजमर्रा की दिनचर्या पर क्या प्रभाव होता है?
बच्चों को स्कूल जाने,नियमित कसरत व् व्यायाम करने व् संगी साथियों के साथ समय व्यतीत करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए|


४. एरीथ्रोमीलालजिया

४.१. यह क्या होता है?
इस बीमारी को "एैरीथरमालजिया" भी कहा जाता है|इसका नाम तीन ग्रीक शब्दों से लिया गया है: एरीथ्रोस: लाल, मेलोस: अंग, व् अलगोस : दर्द|हलकनि यह बीमारी अत्यंत दुर्लभ होती है पर यह कुछ परिवारों में पायी जाती है|आमतौर से यह लड़कियों में अधिक देखी जाती है व् लगभग दस वर्ष की आयु के आस पास शुरू होती है|
पावों व् कभी कभी हाथों में, जलन,गर्माहट,लाली व् सूजन आ जाना इस बीमारी के प्रमुख लक्षण होते हैं|यह लक्षण गर्मी में अधिक बढ़ जाते हैं और अंग को ठंडा करने से शांत होते हैं|कुछ बच्चे तो इसलिए बर्फ के ठन्डे पानी से अंग निकलना ही नहीं चाहते|यह बीमारी बहुत विकत होती है|गर्मी व् कठोर परिश्रम से बचाव ही इस तकलीफ को कम कर सकते हैं|
इस तकलीफ को कम करने के लिए चिकित्सक बच्चों को आवश्यकता अनुसार दवाएं देते हैं जैसे एंटी इंफ्लेमेटरी दवाएं,दर्द निवारक दवाएं व् रक्त कोशिकाओं को फ़ैलाने वाली दवाएं जिनसे रक्त संचार व्यवस्थित रहता है|


५. ग्रोइंग पेन्स

५.१. यह क्या होता है?
यह नाम उस तकलीफ को दिया गया है जो घातक नहीं होती व् जिसमें एक विशिष्ट प्रकार का दर्द होता है|यह तकलीफ आम तौर से ३-१० वर्ष की आयु के बच्चों में देखने को मिलती है|इस तकलीफ को"बीनाइन लिंब पेन ऑफ़ चाइल्डहुड" या "रेकर्रेंट नॉक्टर्नल लिंब पेंस " भी कहा जाता है|

५.२. यह बीमारी कितनी आम है?
यह तकलीफ बच्चों में काफी आम होती है|विश्वभर में औसतन १०-२० प्रतिशत बच्चों में यह तकलीफ पायी जाती है|

५.३. इस बीमारी के प्रमुख लक्षण क्या हैं?
दर्द अधिकतर पैरों में ही होता है(ज्यादातर पिंडली व् टांगों में,घुटनों के पीछे व् जांघों में) व् आमतौर से दर्द दोनों पैरों में होता है|दर्द अधिकतर देर शाम को या रात को होता है व् इससे बच्चे की नींद भी खुल जाती है|अक्सर माता पिता कहते हैं की यह दर्द तब अधिक होता है जब बच्चे ने पूरे दिन शारीरिक परिश्रम किया हो जैसे अधिक खेल कूद इत्यादि|
दर्द आम तौर पर से १० से ३० मिनट तक रहता है,पर यह कुछ मिनटों से ले कर घंटों तक रह सकता है|इसकी तीव्रता भी बिलकुल कम से ले कर बहुत अधिक तक रह सकती है|यह दर्द रुक रुक कर आते हैं व् कभी कभी कई दिन या महीनों तक दर्द नहीं होता|इसके विपरीत कुछ बच्चों को दर्द प्रति दिन भी हो सकता है|

५.४. इसका निदान कैसे किया जाता है?
इसका निदान लक्षणों को देख कर किया जाता है: जैसे विशिष्ट प्रकार का दर्द,सुबह को बच्चे का एकदम ठीक होना और बच्चे की शारीरिक जाँच एकदम ठीक होना|लैबोरेट्री की जाँचें व् क्ष रे एकदम सही आते हैं पर और बीमारियों की पहचान करने के लिए यह सब देखना आवश्यक होता है|

५.५. इसका इलाज कैसे करते हैं?
माता पिता को यह समझना आवश्यक है की यह बीमारी घातक नहीं होती,इससे उनकी चिंता कम हो जाती है|दर्द होने के समय,तेल से मालिश,गरम सिकाई व् दर्द निवारक दवाएं देने से दर्द कम हो जाता है|जिन बच्चों को बहुत तीव्र दर्द उठता है उन्हें शाम को आइबूप्रोफेन नमक दर्द निवारक दवा दी जा सकती है|

५.६. इस बीमारी का प्रोग्नोसिस क्या होता है?
यह बीमारी घातक नहीं होती व् आमतौर से कोई नुकसान नहीं पहुंचाती|बच्चों के बड़े होने क साथ यह अपने आप समाप्त हो जाती है|१००% बच्चों में यह बीमारी उम्र के साथ खत्म हो जाती है|


६. बीनाइन हाइपरमोबिलिटी सिंड्रोम

६.१. यह क्या होता है?
हाइपरमोबिलिटी उन बच्चों के लिए कहा जाता है जिनके जोड़ अत्यंत लचकीले या ढीले होते हैं|इसे जॉइंट लेक्सिटी भी कहते हैं|कुछ बच्चों को जोड़ों में दर्द भी सकता है|बीनाइन हाइपरमोबिलिटी सिंड्रोम उन बच्चों में होता है जिन्हे लचकीले जोड़ों की वजह से जोड़ों में दर्द रहता हो|इन बच्चों को अन्य किसी प्रकार की कोई बीमारी नहीं होती|इसीलिए ऐसा मन जाता है की यह कोई बीमारी नहीं है बल्कि सामान्य से हट कर एक भिन्नता है|

६.२. यह कितनी आम है?
यह बच्चों और किशोरों में काफी आम है व् १० से ३० प्रतिशत बच्चों में खास तौर से लड़कियों में देखी जाती है|यह आयु के साथ कम होती जाती है|कुछ परिवारों में यह कई सदस्यों में पायी जाती है|

६.३.इस बीमारी के प्रमुख लक्षण क्या हैं?
हाइपरमोबिलिटी की वजह से बच्चों को जोड़ों में रुक रुक कर,धीमा धीमा दर्द होता है|यह दर्द अधिकतर शाम को या रात में घुटने,पैरों व् टखने में होता है|जो बच्चे पियानो या वायलिन बजाते हैं,उनमें यह दर्द हाथों की उँगलियों में होता है|शारीरिक गतिविधि व् कसरत से यह दर्द बढ़ सकता है|कभी कभी जोड़ में हलकी सी सूजन भी आ सकती है|

६.४. इस का निदान कैसे किया जाता है?
इसका निदान जोड़ों के लचकीलेपन को नापने के पूर्व निर्धारित मापदंडों को देख कर व् किसी भी अन्य प्रकार की उत्तकों की बीमारी के न पाये जाने पर किया जा सकता है|

६.५. इसका इलाज कैसे किया जा सकता है?
इसके लिए किसी विशेष इलाज की बहुत कम आवश्यकता पड़ती है|यदि बच्चे कोई ऐसे खेल, जैसे फुटबॉल अथवा जिम्नास्टिक्स जिनमें जोड़ों में खिंचाव या बार बार चोट लगने का खतरा हो,में भाग लेते हैं तब उन्हें मांसपेशियों को ताकतवर रखना चाहिए व् जोड़ों की सुरक्षा के लिए इलास्टिक की पट्टी इत्यादि का प्रयोग करना चाहिए|

६.६.दिनचर्या पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है?
यह तकलीफ उम्र के साथ अपने आप ही कम हो जाती है व् किसी भी विशेष इलाज की आवश्यकता नहीं पड़ती|बल्कि सामान्य जीवन व्यतीत न करने देने से बच्चे को अधिक तकलीफ हो सकती है|
माता पिता को बच्चों को सामान्य प्रकार से खेल कूद,जिसमें बच्चे की रूचि हो, में भाग लेने देना चाहिए|


७. ट्रांसिएंट साइनोवाइटिस

७.१. यह क्या होता है?
बच्चों में पाई जाने वाली कूल्हे की तकलीफ का यह एक प्रमुख कारण होता है|३-१० वर्ष की आयु के बच्चों में १-२% में यह तकलीफ पाई जाती है|यह तकलीफ लड़कों को अधिक प्रभावित करती है|

७.२. यह तकलीफ कितनी आम है?
यह एक मामूली प्रज्ज्वलन होता है जिसका आमतौर से कारण ज्ञात नहीं होता(इसमें जोड़ों में हल्का सा पानी ज़्यादा आ जाता है)ख़ास कर के कूल्हे के जोड़ में,और यह अपने आप बिना किसी इलाज के ठीक हो जाता है|

७.३. इस बीमारी के प्रमुख लक्षण क्या हैं?
कूल्हे में दर्द व् लंगड़ा कर चलना इस तकलीफ के मुख्य लक्षण हैं|कूल्हे में पानी, जांघ में दर्द या कभी कभी घुटने में दर्द के साथ प्रस्तुत होता है|यह दर्द एकदम से शुरू हो जाता है|इसका सबसे आम लक्षण है सुबह सुबह उठ कर लंगड़ाना या बच्चे का सुबह सुबह न चल पाना|
७.४. इस का निदान कैसे किया जाता है?
इस बीमारी के निदान शारीरिक परिक्षण के द्वारा किया जाता है|आमतौर से यह बीमारी ३-४ वर्ष के लड़कों में पाई जाती है जो देखने में बीमार नहीं लगते,जिन्हे कोई बुखार नहीं होता व् जो लंगड़ा कर चल रहे होते हैं और उनके कूल्हे परिक्षण करने पर ठीक तरह से हिल नहीं रहे होते|कूल्हे के क्ष रे पर यह दिखाई नहीं देता इसीलिए उसे करने की कोई आवश्यकता नहीं होती|लगभग ५% बच्चों में यह तकलीफ दोनों कूल्हों में पाई जाती है|

७.५. इसका इलाज कैसे किया जाता है?
इसके इलाज का आधार आराम है,जितनी तकलीफ हो उसी मुताबिक आराम करवाया जाता है|दर्द व् प्रज्ज्वलन कम करने के लिए दर्द निवारक दवाओं का इस्तेमाल किया जाता है|

७.६. इसका प्रोग्नोसिस क्या है?
इसका प्रोग्नोसिस बहुत अच्छा होता है और १००% बच्चे ठीक हो जाते हैं(इसका नाम इसीलिए ही ट्रांसिएंट होता है)|यदि १० दिन के बाद भी इसके लक्षण यदि १० दिन से अधिक रहते हैं तब किसी दूसरी बीमारी के बारे में सोचना चाहिए|यह तकलीफ बार बार भी हो सकती है पर प्रत्येक नया एपिसोड पहले से कम तीव्र होता है व् कम समय के लिए रहता है|


८. पटेलो-फेमोरल पेन

८.१.यह क्या होता है?
यह बच्चों में पाये जाने वाले ओवर यूज़ सिंड्रोम का सबसे आम कारण है|इस समूह की बीमारियां एक ही भाग खास कर जोड़ या स्नायु पर बार बार चोट लगने या ज़्यादा इस्तेमाल होने से होती हैं|आमतौर से यह बीमारियां बच्चों के मुकाबले व्यस्कों में अधिक देखी जाती हैं(टेनिस एल्बो,कार्पल टनल सिंड्रोम इत्यादि)
पटेलो-फेमोरल पेन उस एंटीरियर नी पेन को कहा जाता है जो उन क्रियाओं की वजह से हो जाता है जो पटेलो फेमोरल जोड़ पर अत्यधिक बोझ डालती हैं(यह जोड़, नी कैप यानि पटेला और टांग की हड्डी यानि फीमर के बीच होता है)
जब घुटने का दर्द पटेला की अंदरूनी सतह की खराबी के साथ आता है तब उसे कोन्ड्रोमलेशिया ऑफ़ पटेला कहा जाता है|
पटेलो-फेमोरल पेन के कई पर्यायवाची हैं: पटेलोफेमोरल सिंड्रोम,एंटीरियर नी पेन,कोन्ड्रोमलेशिया ऑफ़ पटेला,कोन्ड्रोमलेशिया पटेली|

८.२. यह कितना आम है?
यह तकलीफ ८ वर्ष की आयु से कम में नहीं पायी जाती पर किशोरावस्था के बाद इसके होने की सम्भावना बढ़ती जाती है|यह तकलीफ लड़कियों में अधिक देखी जाती है|यह तकलीफ उन बच्चों में भी अधिक देखी जाती है जिनके घुटनों की बनावट सही नहीं होती जैसे जिनको नॉक नीज(जैनु वैल्गम) या बो लेग्स(जैनु वैरस)होते हैं व् जिनको पटेला की बनावट या टेढ़े जुड़े होने के कारण से हो सकती है|

८.३. इसके मुख्य लक्षण क्या होते हैं?
इसके प्रमुख लक्षण हैं एंटीरियर नी पेन, यानि घुटने के सामने की ओर दर्द होना जो भागने,सीढियाँ चढ़ने उतरने,उकड़ू बैठने व् कूदने से बढ़ता है|ज़्यादा देर तक घुटने मोड़ कर बैठने से भी यह दर्द बढ़ता है|

८.४. इसका निदान कैसे किया जा सकता है?
इसका निदान शारीरिक परीक्षण से किया जा सकता है,इसके लिए किसी जाँच की आवश्यकता नहीं होती|नी कैप को दबाने से या क्वाड्रिसेप्स नामक मांसपेशी को दबाने से यह दर्द फिर से पैदा किया जा सकता है व् इसको परखा जा सकता है|

८.५. इसका इलाज कैसे किया जा सकता है?
जिन बच्चों में पटेला की बनावटी तकलीफ नहीं होती उन बच्चों में इस तकलीफ के लिए किसी विशेष इलाज की आवश्यकता नहीं होती और यह तकलीफ अपने आप से ठीक हो जाती है|यदि दर्द के कारण खेल कूद या दैनिक गतिविधियों में बाधा आती है तो क्वाड्रिसेप्स की मज़बूती के लिए व्यायाम शुरू करना चाहिए|ठन्डे सेक से व्यायाम के बाद का दर्द कम हो जाता है|

८.६. दिनचर्या के बारे में क्या?
बच्चों को सामान्य जीवन व्यतीत करना चाहिए|उनके दर्द को ध्यान में रखते हुए उनकी खेल कूद की गतिविधियों को नियंत्रित रखना चाहिए|बहुत सक्रिय बच्चों को नी स्लीव, जिसमें पटेलर स्ट्रैप होती है,का इस्तेमाल करना चाहिए|


९. स्लिपड कैपिटल फेमोरल एपीफाईसिस

९.१. यह क्या होता है?
इस तकलीफ में फेमोरल हेड की ग्रोथ प्लेट अपनी जगह से हिल जाती है व् इससे उसके विकास पर असर पड़ता है,इसका कोई कारण ज्ञात नहीं होता|ग्रोथ प्लेट हड्डी का एक मुलायम टुकड़ा होता है जो हड्डी के दो हिस्सों के बीच होता है व् इसी हिस्से से हड्डी का विकास होता है|जब उम्र के साथ ग्रोथ प्लेट में मिनरल जमा हो जाते हैं व् जब यह स्वतः हड्डी का रूप ले लेती है तब हड्डी का विकास रुक जाता है|

९.२. यह बीमारी कितनी आम है?
यह एक असामान्य बीमारी है जो १ लाख में ३ से १० बच्चों को ही होती है|यह किशोरावस्था में व् लड़कों में अधिक देखी जाती है|मोटापे से शायद यह बीमारी होने का खतरा अधिक होता है|

९.३. इस बीमारी के मुख्य लक्षण क्या हैं?
लंगड़ा कर चलना ,कूल्हे में दर्द होना व् कोले का पूरी तरह से ना हिल पाना,इस बीमारी के मुख्य लक्षण होते हैं|जांघ के ऊपरी २/३ या निचले १/३ हिस्से में दर्द होता है और कुछ गतिविधि करने से दर्द बढ़ जाता है|१५% बच्चों में यह तकलीफ दोनों कूल्हों में होती है|

९.४.इस का निदान कैसे किया जाता है?
शारीरिक परीक्षण में जब कूल्हे पूरी तरह नहीं हिलते तब इसके बारे में शक किया जाता है|एक्स रे में मेंढक की टांगों की तरह टांगे रख कर इस बीमारी का निदान किया जाता है|

९.५. इसका इलाज कैसे किया जाता है?
इस तकलीफ को हड्डी रोग विशेषज्ञ एक आपात्कालीन स्थिति मानते हैं व् इसके इलाज के किये ऑपरेशन के द्वारा पिन लगा कर कूल्हे की हिली हुई हड्डी को वापिस उसकी जगह पर बैठाया जाता है|

९.६. इस बीमारी का प्रोग्नोसिस क्या है?
यह प्रत्येक बच्चे में अलग होता है व् इस पर निर्भर करता है की हड्डी अपनी जगह से कितनी खिसकी हुई है व् कितने समय से यह परेशानी है|


१०. ऑस्टिओकोंड्रोसिस(पर्यायवाची:अवैस्कुलर नेक्रोसिस, ऑस्टिओनेक्रोसिस)

१०.१. यह क्या होता है?
ऑस्टिओकोंड्रोसिस शब्द का अर्थ होता है "मृत हड्डी"|यह बीमारी एक विभिन्न बीमारियों के समूह की होती है जिनमें हड्डी के पनपने की जगह पर किसी अज्ञात कारणवश रक्त प्रवाह रुक जाता है|जन्म के समय हड्डी कार्टिलेज की बनी होती है जो की एक मुलायम उत्तक होता है व् यह समय के साथ मिनरल जमा कर के मज़बूत हड्डी में परिवर्तित हो जाता है|यह बदलाव एक निर्धारित स्थान से आरम्भ होता है व् इस स्थान को ओसिफिकेशन सेंटर कहा जाता है|यहाँ से शुरू हो कर धीरे धीरे सारा नरम ऊतक कड़क हड्डी में परिवर्तित हो जाता है|
इस समूह की बीमारियों का मुख्य लक्षण दर्द होता है|जिस भी हड्डी में तकलीफ होती है उसी मुताबिक उस बीमारी को नाम दिया जाता है|
इमेजिंग के द्वारा इस बीमारी का निदान किया जाता है|एक्स रे में यह परिवर्तन श्रृंखला में दिखाई देते हैं: सबसे पहले हड्डी के छोटे टुकड़े हो कर अंदर अंदर छोटे द्वीप बनना,इसके बाद हड्डी की रूप रेखा खत्म होना(ब्रेकडाउन)फिर स्क्लेरोसिस (इसमें हड्डी एक्स रे पर ज़्यादा सफ़ेद दिखाई देती है)और अंत में री ओसिफिकेशन( नई हड्डी बनना) व् हड्डी की रूप रेखा फिर से बनना|
हालाँकि यह सुनने में एक गंभीर समस्या लगती है,पर वाकई में यह बच्चों में एक आम तकलीफ होती है व् कूल्हे ही हड्डी को छोड़ कर बाकी जगह होनेसे इसका प्रोग्नोसिस बहुत अच्छा रहता है|कुछ प्रकार के ऑस्टिओकोंड्रोसिस तो इतने आम होते हैं की उन्हें सामान्य हड्डी की बनावट की एक विकृति ही कहा जाता है जैसे सीवर्स डिसीज़|कुछ तकलीफें जैसे ऑसगुड श्लेटर व् सिन्डिंग-लार्सन-जोहानसन को "ओवर यूज़ सिंड्रोम" के अंतर्गत भी रखा जा सकता है|

१०.२. लेग्ग काल्व पर्थेस डिजीज
१०.२.१.यह क्या होता है?
इस तकलीफ में फेमोरल हेड(जांघ की हड्डी जो कूल्हे के सबसे नज़दीक होती है)में रक्त प्रवाह रुक जाने से एवैस्कुलर नेक्रोसिस हो जाती है|

१०.२.२.यह तकलीफ कितनी आम होती है?
यह एक आम बीमारी नहीं होती व् लगभग १०.००० में से एक बच्चे में देखी जाती है|यह तकलीफ लड़कियों की अपेक्षा लड़कों में अधिक देखी जाती है(प्रत्येक एक लड़की की तुलना में ४-५ लड़कों में)|अधिकतर तकलीफ ३-१२ वर्ष की आयु में यह तकलीफ देखी जाती है,ख़ास कर ४-९ वर्ष की आयु के बीच|

१०.२.३.इस तकलीफ के मुख्य लक्षण क्या हैं?
लंगड़ा कर चलना व् कूल्हे में दर्द की शिकायत इस तकलीफ के मुख्य लक्षण हैं|दर्द की तीव्रता अलग अलग होती है|कुछ बच्चों को दर्द बिलकुल भी नहीं होता|आमतौर से यह तकलीफ एक ही कूल्हे में पाई जाती है पर १०% बच्चों में यह दोनों कूल्हों को प्रभावित कर सकती है|

१०.२.४.इस का निदान कैसे किया जाता है?
कूल्हा पूरी तरह से हिलता नहीं है व् उसको पूरी तरह हिलाने पर दर्द होता है|शुरुआत में एक्स रे सामान्य दिखाई दे सकते हैं पर बाद में उनमें विशेष खराबी पता चलने लगती है जैसे की पहले बताई जा चुकी है|बोन स्कैन व् एम.आर.आई. इस तकलीफ को एक्स रे से जल्दी पकड़ पाते हैं|

१०.२.५. इसका इलाज कैसे किया जाता है?
यह आवश्यक है की इस तकलीफ से पीड़ित बच्चों को बच्चों के हड्डीरोग विशेषज्ञ के पास भेजा जाये|इमेजिंग के द्वारा उनकी तकलीफ का पता लगाया जाना चाहिए|इलाज बीमारी की तीव्रता पर निर्भर करता है|जब तकलीफ बिलकुल कम होती है तब बिना किसी इलाज के अपने आप यह तकलीफ खत्म हो सकती है|
जब तीव्रता अधिक होती है तब इलाज का लक्ष्य होता है की फेमोरल हेड को उसकी जगह पर रोक कर रखा जाये जिससे वह पनप कर अपनी गोलाई का आकर ले सके
यह लक्ष्य पाने के लिए छोटे बच्चों को एक विशेष प्रकार का अब्दक्शन ब्रेस दिया जाता है|बड़े बच्चों में सर्जरी के द्वारा हड्डी में से एक टुकड़ा निकल दिया जाता है जिससे उसका आकर ठीक किया जा सके और फीमर को उसकी सही जगह पर रखा जा सके|

१०.२.६. इसका प्रोग्नोसिस होता है?
प्रोग्नोसिस उस पर निर्भर करता है की फीमोरल हेड में कितनी खराबी है(जितनी कम हो उतना अच्छा होता है),व् बच्चे की आयु यदि ६ वर्ष से कम है तब प्रोग्नोसिस बेहतर होता है|पूरी तरह से ठीक होने में लगभग २ से ४ वर्ष लग जाते हैं|आम तौर से सभी प्रभावित कूल्हों में से लगभग दो तिहाई आकार व् कार्य में पूर्ण रूप से ठीक हो पाते हैं|

१०.२.७. रोज़मर्रा की गतिविधियों के बारे में क्या है?
यह इस पर निर्भर करता है की बच्चे की बीमारी कितनी है व् उसका इलाज क्या चल रहा है|बच्चों को तेज़ भागना या ऊंचाई से छलांग लगाने जैसी गतिविधियाँ मन की जाती हैं क्योंकि इनसे कूल्हे पर एकदम झटका लगता है|इसके आलावा बच्चे अपनी सामान्य सभी गतिविधियों में हिस्सा ले सकते हैं, पर उन्हें भरी वज़न उठाने की अनुमति नहीं होती|

१०.३.ऑसगुड श्लैटर डिजीज
यह तकलीफ टीबीएल टुबेरोसिटी (तंग की हड्डी के ऊपरी हिस्से पर स्थित एक हड्डी का छोटा टीला)के ओसिफिकेशन केंद्र पर बार बार चोट लगने से होती है|यह १%किशोरों में देखी जाती है खास तौर से खेल कूद में अधिक सक्रीय किशोरों में|
भागने,सीढीयां चढ़ने उतरने,घुटनों के बल बैठने,कूदने इत्यादि गतिविधियों से दर्द बढ़ जाता है|इसका निदान शारीरिक जांच से किया जाता है जिसमे यह विशेषता मिलती है की घुटने के नीचे टिबिअल टुबेरोसिटी पर दर्द या सूजन होती है व् जहाँ पर पटेला का स्नायु जुड़ा होता है वहां दबाने पर दर्द होता है या कभी कभी सूजन भी देखने को मिलती है|
एक्स रे सामान्य भी हो सकता है या कभी कभी उसनमे टिबिअल टुबेरोसिटी के छोटे छोटे टुकड़े भी दीख सकते हैं|इलाज के लिए ठंडी सिकाई व् गतिविधियों को उतना सीमित करना चाहिए जितने में मरीज़ बिना तकलीफ के अपना सभी कार्य कर पाये|समय के साथ यह तकलीफ अपने आप बिना किसी विशेष इलाज के ठीक हो जाती है|

१०.४ सीवर्स डिजीज
इस स्थिति को "केलकेनीयल अपोफैसाइटिस" भी कहा जाता है|यह कलकैनेअल अपोफाइसिस की ऑस्टिओकोंड्रोसिस होती है जो की शायद ऐकिलिस स्नायु से सम्बंधित होती है
यह बच्चों व् किशोरों में एड़ी के दर्द का मुख्य कारण होता है|अन्य ऑस्टिओकोंड्रोसिस की ही भांति यह भी खेल कूद में सक्रीय बच्चों व् खास तौर से लड़कों में देखा जाता है|यह ७-१० वर्ष की आयु में प्रारम्भ होता है व् इसमें व्यायाम के बाद एड़ी में दर्द होता है जिससे बच्चे लंगड़ा कर चलते हैं|
इसका निदान शारीरिक परिक्षण से ही किया जाता है|इसके लिए किसी भी विशेष इलाज की आवश्यकता नहीं होती,सिर्फ बच्चे की तकलीफ के अनुसार उसकी गतिविधियों को नियंत्रित करना पड़ता है जिससे बच्चे को दर्द न हो|अधिक तकलीफ होने पर एड़ी के नीचे कुशन लगाया जा सकता है|समय के साथ यह तकलीफ अपने आप ठीक हो जाती है|

१०.५. फ्रीबर्ग डिजीज
यह तकलीफ पैर में स्थित दुसरे मेटा टार्सल के सर पर चोट लगने से हुए ऑस्टिओकोंड्रोसिस से होती है|यह बहुत आम तकलीफ नहीं होतीव् अधिकतर किशोरावस्था में लड़कियों में देखी जाती है|शारीरिक गतिविधियों से दर्द बढ़ता है|शरीक परिक्षण के द्वारा पैर के दुसरे मेटा टार्सल पर दबाने से दर्द होता है व् कभी कभी वहां पर सूजन भी दिखाई देती है|इसका निदान एक्स रे के द्वारा किया जा सकता है पर एक्स रे में यह दिखाई देने में दो सप्ताह से अधिक समय लग सकता है|इलाज के लिए आराम व् मेटा टार्सल के ऊपर पैड लगाया जा सकता है|

१०.६. शरमन डिजीज
शरमन डिजीज को जुवेनाइल काइफोसिस भी कहा जाता है|यह बीमारी रीढ़ की हड्डी की ऊपर व् नीचे की परत में ऑस्टिओ नेक्रोसिस की होती है|यह अधिकतर किशोर लड़कों में देखी जाती है|अधिकतर बच्चों को इस बीमारी में तकलीफ नहीं होती पर उनकी कमर आगे की ओर झुकी हुई होती है|अधिक कार्य करने पर कमर में दर्द हो सकता है जो आराम करने से कम होता है|
इस रोग का संदेह मरीज़ की कमर में आये अधिक झुकाव को देख कर किया जाता है व् उसकी पुष्टि एक्स रे के द्वारा की जाती है|
शरमन डिजीज नमक रोग के निदान के लिए बच्चे की कम से कम एकसाथ तीन रीढ़ की हड्डियों में आगे की तरफ ५ डिग्री का झुकाव होना चाहिए व् दो रीढ़ की हड्डियों के बीच की परत में खराबी दिखाई देनी चाहिए|
शरमन डिजीज के लिए आमतौर से किसिस विशेष चिकित्सा की अवश्यक्या नहीं होती, इन बच्चों को नियमित देख रेख में रखा जाता है व् अधिक जटिल तकलीफ में रीढ़ की हड्डी के लिए ब्रेस दिया जा सकता है|


 
समर्थित
This website uses cookies. By continuing to browse the website you are agreeing to our use of cookies. Learn more   Accept cookies