1.1यह क्या है?
वास्कुलाइटिस रक्तवाहिनी का प्रज्वलन है। वास्कुलाइटिस बीमारियों का एक समूह है। `प्राइमरी'का मतलब है कि बिना किसी अन्य बीमारी के रक्तवाहिनी प्रभावित है। वास्कुलाइटीडीएस का विवरण रक्तवाहिनी के नाप व प्रकार पर निर्भर करता हे। विभिन्न प्रकार के वास्कुअलिटिस हैं जो हलके से जानलेवा हो सकते हैं। ये बीमारी समूह बहुत दुर्लभ है यानि कि यह बीमारियां कभी कभार देखी जाती हैं।
1.2 यह कितनी आम हैं?
कुछ वास्कुलाइटिस बच्चों मैं अक्सर पाये जाते हैं (< l=8*t1>जैसे हनोक-शोलाइन परपूरा व < l=7*t1>कावासाकी बीमारी), जबकि अन्य बहुत दुर्लभ हैं।कभी कभी तो माता -पिता ने वास्कुलाइटिस का नाम अपने बच्चे की बीमारी होने से पहले सुना ही नहीं होता। हनोक-शोलाइन परपूरा व कावासाकी बीमारी का विवरण अलग जगह दिया गया है।
1.3 इस बीमारी के क्या कारण हैं? क्या ये माता-पिता से बच्चों में आ सकती है? क्या ये सक्रमण की बीमारी है? क्या इसका बचाव संभव है?
प्राइमरी वास्कुलिटीडीएस प्राय परिवार में नहीं होती हैं। प्राय परिवार में एक बच्चा ही प्रभावित होता है और बच्चों में होने की संभावना ना के बराबर है। यह लगता है कि कई कारण इस बीमारी के होने में सिम्मलित हैं। यह माना जाता है कि कीटाणु ,जीन्स व वातावरण इस बीमारी के होने में भागीदार हैं ।
नही, ये सक्रमण की बीमारी नही है। इसका बचाव संभव नहीं है। इन बिमारियों को जड़ से खत्म नहीं किया जा सकता है पर इन पर काबू पाया जा सकता है -मतलब की इनके लक्षण दूर हो जाते हैं.इस स्थिति को '"रेमिशन" कहते हैं।
1.4 रक्तवाहिनी को वास्कुलिटिस में क्या होता है ?
शरीर की प्रतिरक्षा शक्ति रकत वाहिनी पर वार कराती हे जिससे उनमे सूजन आ जाती है और वह ख़राब हो जाती हैं। खून का दौरा कम हो जाता है व उनमे खून जम सकता है। रक्त वाहिनी की सूजन के साथ इसके कारण रकत वाहिनी सिकुड़ या बंद हो जाती है।
रक्त वाहिनी में खून के कण जमा हो जाते हैं जो रकत वाहिनी व आस पास को ख़राब करते हैं। इन को बीओप्सी में देखा जा सकता है।
रक्त वाहिनी से पानी बहार रिसने लगता है और आस पास सूजन पैदा करता है। इन कारणों से इन बीमारियों मैं तरह तरह के चकते चमड़ी पर हो जाते हैं
रक्त वाहिनी सिकुड़ने के कारण खून का दौरा कम होने से व कभी कभी धमनी के फटने के कारण आस पास के टिश्यू ख़राब हो जाते हैं। अहंम अंगों को खून देने वाली रक्त वाहिनी ख़राब होने से दिमाग़, फेफड़े ,दिल व गुर्दे पर गंभीर असर पड़ सकता है। फैले हुऐ वास्कुलिटिस मे प्रज्जवलन के अनेक कण रक्त में पाये जाते हैं जो बुखार , थकन व खून के जाँच में प्रज्जवलन को प्रदर्शित करने वाले टेस्ट: ई स आर व सी रिएक्टिव प्रोटीन (सी आर पी ) को प्रभावित करते हैं। बड़ी रक्त वाहिनियों की खराबी देखने के लिए एंजियोग्राफी ( एक तरह का एक्सरे जिसमे रक्त वाहिनियों को देखा जा सकता है।
2.1 वास्कुलिटिस के कितने प्रकार हैं। वास्कुलिटिस को कैसे वर्गीकृत करते हैं।
बच्चों में वास्कुलिटिस वर्गीकरण रक्त वहिनिओ के नाप पर निर्भर करता हैं। बड़े माप की वास्कुलिटिस जैसे टकयासु आर्टेरिटिस एओर्टा और उसकी टहनियाँ को प्रभावित करती है। मध्यम माप की वास्कुलिटिस गुर्दे ,आँत , दिमाग़ व दिल की धमनियों को प्रभावित करती हैं (जैसे पोल्यार्टेरिटिस नोडोसा , कावासाकी बीमारी) । छोटे माप की वास्कुलिटिस छोटी धमनियों को प्रभावित करती हैं (जैसे हनोक-शोलाइन परपूरा, चुरग स्ट्रॉस सिंड्रोम , चमड़ी की लुककीटोक्लास्टिक वास्कुलिटिस , माइक्रोस्कोपिक पॉलीअनजिटिस ) ।
2.2 इनके मुख्य लक्षण क्या हैं?
बीमारी के लक्षण खून की धमनियों की स्थान (एहम अंग जैसे दिमाग़, दिल), तथा मात्रा (कुछ जगह या बहुत जगह ) व खून के दौरे में कमी की मात्रा पर निर्भर करते है। यह खून के दौरे में हलकी कमी से ले कर दौरा पूरा बंद होने तक हो सकता है जिससे प्रभावित अंग में ऑक्सीजन व खाने की कमी हो जाती है। इससे अंग ख़राब हो जाते हैं। अंग नष्ट होने की मात्रा उसमें खराबी की मात्रा को दर्शाती है। हर बीमारी के अंतर्गत उसके लक्षण लिखे गये हैं।
2.3 इनकी पुष्टि कैसे की जाती है?
वास्कुलिटिस की पुष्टि आसान नहीं है। इनके लक्षण बच्चों की अन्य बीमारियों के जैसे होते हैं। इनके डायग्नोसिस के लिए विशेषज्ञ लक्षण, खून व पैशाब की जाँचे व अन्य जाँच (जैसे अल्ट्रासाउंड, एक्सरे, सीटी व एमआरआई ) को साथ मूल्यांकन कर सकते हैं। जहां जरुरत हो तो कोई अंग का छोटा टुकड़ा ले कर उसकी जाँच करनी पड़ती है। क्योंकि यह बीमारियां बहुत कम पाई जाती हैं इसलिये बच्चे को अधिकतर बड़े अस्पताल जहां विशेषज्ञ उपलब्ध हो भेजा जाना चाहिये।
2.4 क्या इनका इलाज़ है?
हाँ, आजकल इनका इलाज़ संभव हैं पर कुछ जटिल मरीजों में यह एक बड़ी चुनौती हो सकती है। अधिकतर मरीजों में ठीक इलाज़ से बीमारी पर काबू पाया जा सकता हैं।
2.5 इलाज़ किस प्रकार का हैं?
प्राइमरी वास्कुलिटिस का इलाज़ लम्बे दौरान चलता है। उसका लक्षय बीमारी पर जल्दी से जल्दी काबू पाना हैं और उसे लम्बे समय तक काबू में रखना है, उसी समय यह भी देखना है कि दवा के बुरे असर ना हो । मरीज की उम्र व बीमारी की गंभीरता देख कर हर मरीज के लिए इलाज़ का चयन किया जाता है।
कॉर्टिकोस्टेरॉइड प्रतिरक्षा क्षमता कम करने वाली दवाये जैसे
सिक्लोफोस्फेमिड के साथ बीमारी को काबू पाने में कारगार सिद्ध होते है।
बीमारी को लगातार काबू में रखने के लिए:
अज़थिोप्रीन ,
मेथोट्रेक्सेट,
मयकोफेनॉलाट व थोड़ी मात्रा में प्रेड्निसोलोन प्रयोग में लायी जाती हैं। अन्य कई दवाएं जो इम्यून सिस्टम को दबा कर रख सकती है को भी प्रयोग में लाया जाता है जब साधारण दवाएं काम नहीं करती। इनमे नए
बिलोजिकल दवाये (जैसे टी एन ऍफ़ अवरोधक व रिटुक्सीमेब ),
कोल्चिसिन और थैलिडोमिड शामिल है।
लम्बे दौरान स्टेरॉयड से इलाज़ में , ऑस्टियोपोरोसिस से बचने के लिए पर्याप्त कैल्सियम व विटामिन दी लेना चाहिए। खून पतला करने के लिए दवाएं (एस्प्रिन या अन्य दवाये ) और यदि ब्लड प्रेसर बढ़ जाये तो उसे कम करने वाली दवाएं भी प्रयोग में लानी पड़ती हैं।
मांशपेशियों को सुधारने के लिए कसरत की जरूरत पड़ सकती है ,व बीमारी के तनाव से बचने के लिए मरीज व उसके परिवार की सामाजिक मदद करनी चाहिए।
2.6 और तरह के इलाज़ो के बारे में क्या?
बहु प्रकार के इलाज़ प्रचलित हैं व इससे मरीज व उसके परिवार भ्रमित हो जाते है। इन इलाज़ को प्रयोग करने से पहले उनके फयदे व हानि के बारे में सोच लें क्योंकि उनके कारगर होने का कोई सबूत नहीं है व वह महंगे होते है। यदि आप उन्हें प्रयोग करना चाहते है तो अपने डॉक्टर से सलाह लें।
कुछ इलाज़ आपकी दवा के साथ बुरा असर कर सकते है। अधिकतर डॉक्टर उसके बारे में मना नहीं करेंगे जब तक आप बाकी इलाज़ करते रहेंगे। यह बहुत जरुरी है की आप अपनी दवा बंद न करें। यदि दवा आपकी बीमारी को नियंत्रित ऱखने में मदद कर रही हे तो उसको रोकना खतरनाक हो सकता है। दवा के बारे में अपने बच्चे के डॉक्टर से परामर्श करें।
2.7 जाँच
समय समय पर डॉक्टर की सलह लेने का मुख्य उद्देश्य बीमारी की दशा व दवा के बुरे असर को देखना है जिससे मरीज को ज्यादा फायदा हो सके । कितनी बार और कितने समय के बाद मरीज को देखा जाए ,बीमारी की गंभीरता व क्या दवाएं दी जा रही है पर निर्भर करता है । बीमारी की शुरुआत में मरीज को ओ पि डी में देखा जा सकता पर गंभीर मरीजों को भर्ती करने की जरुरत बार बार पड़ सकती है। जैसे बीमारी कंट्रोल में आ जाती है तो मरीज को कम बार अस्पताल आना पड़ता है।
वास्कुलिटिस के मूल्यांकन के कई तरीके है। बच्चे की स्थिति के बारे मे बदलाव के बारे मे पूंछने के साथ, पेशाब की जाँच व ब्लड प्रेशर की जाँच की जाती है। विस्तृत चिकित्सकीय परीक्षण के साथ मरीज के शिकायत के आधार पर बीमारी का मूल्यांकन किया जाता है। खून व पेशाब की जाँच के जरिये सूजन, अंगों में प्रभाव, दवा के कुप्रभाव का पता लगता है। दूसरे अंगों पर बीमारी का प्रभाव होने पर दूसरे विशिष्ट परीक्षण व (इमेजिंग) कराना पड़ सकता है।
2.8 बीमारी कब तक चलेगी?
वास्कुलिटिस बीमारी बहुत लम्बी चलती है, कई बार जिंदगी भर। बीमारी की शुरूआत अचानक हो सकती है जो कि बहुत गम्भीर व कभी कभी प्राणघातक हो सकती है और बाद में यह लम्बे दौरान रहने वाली बीमारी बन जाती है।
2.9 बीमारी की स्थिति आगे चलकर किस प्रकार रहेगी?
बीमारी की स्थिति हर मरीज में अलग-अलग होती है। बीमारी की स्थिति रक्त धमनी के प्रकार व बीमारी की गंभीरता पर ऩिर्भर करती है। इसके अलावा बीमारी के प्रारम्भ व इलाज के बीच की समयावधि पर भी ऩिर्भर करती है। साथ ही दवा के परिणाम पर भी ऩिर्भर करती है। बीमारी की सक्रियता पर ऩिर्भर करता है कि दूसरे अंग प्रभावित होते हैं या नहीं। यदि शरीर के जरूरी अंग प्रभावित हो गये तो बीमारी का प्रभाव लम्बे समय तक रहता है। यदि ठीक से इलाज किया जाये तो बीमारी पहले वर्ष में ठीक हो सकती है। हो सकता है मरीज पूरी जिंदगी ठीक रहे, मगर ज्यादातर मरीजों को लम्बे समय तक दवा खानी पड़ती है। बीमारी की सक्रियता घटती बढती रहती है जिसके कारण कभी कभी ज्यादा दवा की जरूरत पड सकती है। इलाज न होने पर बीमारी प्राणघातक हो सकती है। बीमारी का प्रतिशत कम होने के कारण बीमारी के लम्बे प्रभाव व प्राणघातकता के बारे मे आंकडे उपलब्ध नहीं है।
3.1 कैसे बीमारी बच्चे व परिवार के रोजमर्रा की जिंदगी प्रभावित करती है
जब तक बीमारी का पता नहीं चलता व बच्चा ठीक नहीं होता तब तक पूरा परिवार तनावग्रस्त रहता है।
बीमारी व इलाज की समझ बच्चों व उनके माता पिता में होने से कुछ कष्टप्रद उपचारों से बचा जा सकता है। जब बीमारी पर नियंत्रण हो जाता है तो घरेलू जिंदगी एक बार फिर सामान्य हो जाती है।
3.2 स्कूल के बारे में क्या?
एक बार बीमारी पर नियंत्रण के बाद बच्चे को स्कूल भेजा जा सकता है। आवश्यक है कि बच्चे की स्थिति के बारे में स्कूल को बता दिया जाये
3.3 खेल के बारे में क्या
बीमारी का प्रभाव कम होने पर खेल के लिये बच्चों को प्रोत्साहित करना चाहिये।
प्रोत्साहन कि शरीर के अंगो जैसे मांसपेशियों, जोड़ व हड्डियाँ की दशा पर निर्भर करता ,जो स्टेरॉयड खाने से प्रभावित हो सकती है ।
3.4 भोजन के बारे में क्या?
विशेष प्रकार के भोजन के बीमारी की दशा व परिणाम पर कोई असर होने का कोई प्रमाण नहीं है। बढ़ते बच्चे को पौष्टिक आहार जिसमें प्रोटीन, कैल्शियम विटामिन की प्रचुरता हो खाना चहिये। जब कार्टिकोस्टेरायड दवा चल रही हो तब मीठा,वसा व नमक का प्रयोग कम करना चाहिये जिससे दवा का कुप्रभाव कम पडे।
3.5 क्या मौसम का प्रभाव बीमारी पर पडता है?
मौसम का बीमारी पर प्रभाव ज्ञात नहीं है। बीमारी के कारण उंगली व अंगूठे में रक्त संचरण बाधित होने पर ठंडक में बीमारी के लक्षण बढ़ सकते हैं।
3.6 संक्रमण व प्रतिरक्षा के बारे में क्या है
प्रतिरक्षा क्षमता घटाने वाली दवा पर चल रहे बच्चों में संक्रमण की संभावना बढ जाती है। चिकन पाक्स के सम्पर्क में आने पर तुरंत चिकित्सक से सम्पर्क कर एंटी वायरस दवा या विशेष एंटी वायरस इम्यूनोग्लोबुलिन लेना चाहिये। साधारण संक्रमण की संभावना इलाज कर रहे बच्चों में रहती है। सामान्यतया प्रभाव न डालने वाले संक्रमण भी इन बच्चों में गंभीर रूप ले सकते हैं। इन मरीजों में न्यूमोसिस्टिस वैक्टीरिया के संक्रमण के कारण फेफडे प्रभावित हो सकती हैं, इससे बचाव के लिये को-ट्रीमेक्सोजोल एंटीबायोटिक दवा पर रखा जाता है।
जब तक इम्यूनोसप्रेसिव दवा पर बच्चा है तब तक खसरा, टी बी, रूबेला, पोलियो टीका नही लगवाना चाहिये।
3.7 गर्भधारण के बारे में क्या
दवायें शिशु के विकास को प्रभावित करती हैं इसलिए संतान उत्पत्ति के बारे में नही सोंचना चाहिये। । कुछ साइटोटाक्सिक दवायें (सिक्लोफोस्फेमिड) संतान उत्पन्न करने की क्षमता को प्रभावित करती है। यह दवा के प्रकार व कुल दवा की मात्रा पर निर्भर करती है पर बच्चों व किशोरों में यह कम महत्व का है।
4.1 यह क्या है
रकत वाहिनी के भित्ती में खराबी के कारण यह बीमारी होती है। इसमें मुख्यतः मध्यम व छोटे आकार की रकत वाहिनी प्रभावित होती हैं। कई रकत वाहिनी की अन्दर सतह पर प्रभावित होता है। रकत वाहिनी के जिस भाग में सूजन होती है वह भाग कमजोर हो जाता है। रक्त दबाव के कारण सतह पर छोटी-छोटी गिल्टियां बन जाती हैं। इसी कारण नोडोसा नाम जुड गया। क्यूटेनियस (त्वचा) पालीअर्टराइटिस में मुख्यतः त्वचा प्रभावित होती है भीतरी अंग नहीं।
4.2 क्या यह सामान्य है
पीएएन बच्चों में बहुत कम होता है। 1000,000 लोगों में प्रतिवर्ष एक नया व्यक्ति रोगी होता है। बीमारी का प्रभाव लडके व लडकियों में बराबर है। 9 से 11 साल के उम्र में सामान्यतः यह बीमारी होती है। बच्चों में यह स्ट्रेप्टोकोकल इन्फेक्शन से संभंधित हो सकती है और कभी कभी हेपेटाइटिस बी और सी के साथ।
4.3 बीमारी के मुख्य लक्षण क्या है
सबसे प्राय लक्षण लम्बा बुखार , थकान और वजन घटना होते है।
बीमारी के लक्षण प्रभावित अंगो पर निर्भर करता है। अंगो में खून का दौरा कम होने से दर्द होता है। इसीलिए विभिन्न जगह पर दर्द इस बीमारी का मुख़्य लक्षण है। बच्चों में मासपेशियों व जोड़ों में दर्द उतना ही पाया जाता है जितना पेट में दर्द , जो पेट की रक्त वाहिनी में प्रभाव के कारन होता है। यदि अण्डकोष की रकत वाहिनी में प्रभाव होता है तो फोते में दर्द हो सकता है। चमड़ी में प्रभाव के विभिन्न लक्षण हो सकते है जो बिना दर्द के दाग़ (जैसे छोटे छोटे दाग़ जो पुपुरा कहलाते है या जाली जैसे लाल दाग जो लिवेदो रेटिक्युलरिस कहलाता है )से ले कर दर्दनाक गाँठे व घाव या गैंग्रीन (रक्त वाहिनी में खून का दौरा पूर्णतय बंद हो जाने से अगुलियों, कान अ नाक का कालापन). गुर्दे मे प्रभाव के कारण पेशाब मे खून व प्रोटीन आ सकता है या ब्लड प्रेसर बढ़ जाता है। दिमाग़ भी प्रभावित हो सकता है और बच्चे को दौरे ,अधरंग या अन्य लक्षण हो सकते हैं।
कुछ में स्तिथि जल्दी बिगड़ जाती है। खून के टेस्ट प्रज्वलन के लक्षण जैसे खून के सफ़ेद कण का बढ़ना व हीमोग्लोबिन का कम होना।
4.4 बीमारी की पुष्टि कैसे होती है?
पी ए एन की पुष्टि के बारे में तब सोचा जाता है जब बुखार के सामान्य कारण नहीं मिलते है और संक्रमण की संभावना को नकारा जा चुका होता है। जब बीमारी के लक्षण, एंटीबायोटिक जो बच्चो में प्राय बुखार के लिए दी जाती हैं देने के बावजूद भी रहते है तो यह डाइग्नोसिस हो सकता है। बीमारी की पुष्टि रक्त वाहिनिओ में प्रभाव (एंजियोग्राम परीक्षण) के प्रमाण या रक्त वाहिनी में प्रवजलन जो बीओप्सी में पाया जाता है पर निर्भर करता है।
एंजियोग्राफी एक एक्सरे का टेस्ट है जिसमे रक्त वाहिनी जो सामान्य एक्सरे में नहीं दिखती है को कंट्रॉस्ट के माध्यम से देखा जाता है। सिटी के द्वारा भी एंजियोग्राफी की जा सकती है (सिटी एंजियोग्राफी)।
4.5 इलाज़ के बारे में क्या?
बच्चो की पे एन बिकी बीमारी में
कॉर्टिकोस्टेरॉइड्स इलाज का मुख़्य साधन है। इन दवाओं को देने का माध्यम (नस के अन्दर जब बीमारी गंभीर होती है और बाद में गोली के रूप में ) और मात्रा बीमारी की दशा और प्रभाव को देख कर हर मरीज के अनुरूप निर्णय लिया जाता है। जब बीमारी चमड़ी या जोड़ो तक सिमित होती है तब प्रतिरक्षा विरोधी दवाओं की जरुरत नहीं पड़ती। पर जब बीमारी गंभीर और शरीर के अंहम अंगो को प्रभावित करती है तो इन दवाओं जैसे
सिक्लोफोस्फमिड का प्रयोग जल्दी कर बीमारी को काबू में किया जाता है (इंडक्शन इलाज़ ) बहुत गंभीर और दवाओं से ठीक न होने वाली बीमारी में अन्य दवाये जिसमे
बिओलोजिक पदार्थ को प्रयोग में लाया जाता है पर उनके प एन में कारगार होने को किसी शोध में नहीं दिखाया गया है।
जब बीमारी ठीक हो जाती है , उसे लगातार काबू में रखने के लिए:
अज़थिोप्रीन ,
मेथोट्रेक्सेट व
मयकोफेनॉलाट का प्रयोग किया जाता है।
अन्य इलाज़ जो किसी किसी मरीज में दिए जाते है पेनिसिलिन (स्ट्रेप्टोकॉकल संक्रमण से सम्बद्ध होने से ), खून की नसों को खोलने वाली दवाये (वसोदिलतोर )ब्लड प्रेसर कम करने वाली दवाएं, खून पतला करने वाली दवाएं (एस्प्रिन व अँटिकगुलांट्स ) और दर्द निवारक दवाएं (नॉन स्टेरॉइडल दवाये )
5.1 यह क्या है ?
टाकायासू अर्टराइटिस बीमारी में मुख्यतः बडी रक्त धमनियां प्रभावित होती हैं, विशेष तौर पर एओर्टा व इसकी शाखायें और फेफडे की आर्टरी व शाखायें। कई बार आर्टरी के सतह में विशेष प्रकार की बडी कोशिकाओं के आस-पास छोटी गांठ व चकत्ते बन जाने पर ग्रेनुलोमेट्स या बडी कोशिका वैस्कुलाइटिस शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसे `नस न होने वाली बीमारी' भी कहा जाता है क्योंकि कुछ मरीजों में हाथ पैर की नसे नहीं मिलती या उनमे फर्क होता है।
5.2 क्या यह सामान्य है ?
दुनिया भर में टी ए को काफी पाया जाता है क्योंकि यह एशियाई मूल के लोगो में यह ज्यादा पायी जाती है। यह यूरोपीय लोगो में बहुत कम पायी जाती है। यह लडकों के मुकाबले लडकियों में ज्यादा होता है।
5.3 इसके मुख्य लक्षण क्या हैं?
शुरूआत में मरीज को बुखार, भूख नहीं लगना, वजन घटना, मांसपेशियो और जोडों में दर्द व रात में पसीने आते हैं। सूजन की वजह से रक्त जाँच में पाये जाने वाले कण बढ जाते है। जैसे-जैसे धमनियों की सूजन बढती जाती है वैसे-वैसे रक्त की कमी के लक्षण मिलने लगते हैं । बच्चो में गुर्दे को प्रवाहित करने वाली धमनियों के सिकुडने ब्लड प्रेसर का बढ़ना एक शरुआती लक्षण होता है । हाथ और पैरों में नस न पाये जाना, विभिन्न अंगो मे ब्लड प्रेसर मे फर्क, सिकुडी हुई धमनियों के उपर ´मर्मर´ और हाथ व पैरों में बहुत तेज दर्द (क्लौडिकेशन) इसके मुख्य लक्षण हैं। दिमाग में रक्त प्रवाह की कमी से कई प्रकार के न्यूरोलाजिकल (दिमाग के) और आँख के लक्षण हो सकते हैं।
5.4 इसको पहचाना कैसे जाये?
डाप्लर अल्ट्रासांउड करके हम दिल के पास वाली बडी धमनियों पर होने वाले प्रभाव को तो जान सकते हैं, मगर दूर की धमनियों पर प्रभाव को जानना मुश्किल होता है।
धमनियों पर किस हद तक प्रभाव हुआ है यह जानने के लिये सारी प्रमुख धमनियों के साथ-साथ फेफडे की धमनियों को पैन-एओर्टोग्राफी और पल्मोनरी ऐन्जियोग्राफी की मदद से देखना जरूरी होता है। बड़ी धमनियों और उनकी शाखाओं को देखने के लिए मैग्नेटिक रेसोनेंस (एम आर) फोटो से धमनी की बनावट और खून के दौरे के लिए (एम आर अन्जिग्राफी ) सबसे उपयुक्त साधन हैं। साधारण एक्स रे में धमनियों को कंट्रास्ट (जो नस में सीधा डाला जाता है ) के माध्यम से देखा जाता है। इसे अँजिओग्रफी कहते है।
कंप्यूटराइज्ड टोमोग्राफी का भी प्रयोग किया जा सकता है (सी टी एंजियोग्राफी) नुक्लेअर मेडिसिन विभाग में पेट (पॉज़िट्रान एमिशन टोमोग्राफी ) उपलबब्ध है। एक रडिओइसोटोप को नस में सीधा डाला जाता है और स्कैनर में रिकॉर्ड किया जाता है। रडिओइसोटोप बीमारी वाली जगह पर जमा हो जाता है कंप्यूटराइज्ड टोमोग्राफी का भी प्रयोग किया जा सकता है (सी टी एंजियोग्राफी) नुक्लेअर मेडिसिन विभाग में पेट (पॉज़िट्रान एमिशन टोमोग्राफी ) उपलबब्ध है। एक रडिओइसोटोप को नस में सीधा डाला जाता है और स्कैनर में रिकॉर्ड किया जाता है। रडिओइसोटोप बीमारी वाली जगह पर जमा हो जाता है
5.5 क्या इलाज़ है?
कॉर्टिकोस्टेरॉइड्स इलाज का मुख़्य साधन है। इन दवाओं को देने का माध्यम (नस के अन्दर जब बीमारी गंभीर होती है और बाद में गोली के रूप में ) और मात्रा बीमारी की दशा और प्रभाव को देख कर हर मरीज के अनुरूप निर्णय लिया जाता है। और दवाएँ जो प्रतिरक्षा क्षमता कम करते है का प्रयोग जल्दी किया जाता है जिससे कर्टिकोस्टेरॉइड को काम किया जा सके।
अज़थिोप्रीन ,
मेथोट्रेक्सेट व
मयकोफेनॉलाट को प्राय प्रयोग में लाया जाता है। पर जब बीमारी गंभीर सिक्लोफोस्फमिड का प्रयोग जल्दी कर बीमारी को काबू में किया जाता है (इंडक्शन इलाज़ ) । बहुत गंभीर और दवाओं से ठीक न होने वाली बीमारी में अन्य दवाये जिसमे बिओलोजिक पदार्थ (जैसे टी एन एफ ब्लॉकर या
तोसिलीज़ुमेब) को प्रयोग में लाया जाता है पर उनके टी ऐ में कारगार होने को किसी शोध में नहीं दिखाया गया है।
अन्य इलाज़ जो किसी किसी मरीज में दिए जाते है खून की नसों को खोलने वाली दवाये (वसोदिलतोर )ब्लड प्रेसर कम करने वाली दवाएं, खून पतला करने वाली दवाएं (एस्प्रिन व अँटिकगुलांट्स ) और दर्द निवारक दवाएं (नॉन स्टेरॉइडल दवाये )
6.1 ये क्या है?
यह एक लम्बे समय तक चलने वाली शरीर की धमनियों की सूजन है जो छोटी और मध्यम आकार की धमनियों को प्रभावित करती है। खासकर नाक और साइनस में, फेफडो में और गुर्दो में। ग्रैन्युलोमेटोसिस शब्द का अर्थ है धमनियों के अंदर और चारो तरफ पाये जाने वाले कई परतों वाली सूजन की सूक्ष्मदर्शी बनावट।
एम पि ऐ छोटी धमनियों को प्रभावित करती है। इन दोनों बीमारियो में एक एंटीबाडी जिसे एनका (एंटी नुट्रोफिल सीतोप्लास्मिक एंटीबाडी ) होती है ; अतः इन बीमारियों को एनका से सम्भंदित बीमारियां भी कहा जाता है।
6.2 यह कितना सामान्य है? क्या बच्चों में यह बीमारी बडो से अलग होती है?
यह एक असामान्य (कम पाई जाने वाली) बीमारी है, खासकर बच्चो में। एक साल में नये मरीजों की संख्या 1000000 बच्चों में लगभग एक से दो होती है। 97 प्रतिशत से ज्यादा गोरी चमडी वाले (कोकैशियन) होते हैं। बच्चों में यह बीमारी लडको और लडकियो को समान रूप से प्रभावित करती है जबकि बडो में यह औरतों की अपेक्षा मर्दो को ज्यादा प्रभावित करती है।
6.3 इसके प्रमुख लक्षण क्या है?
अधिकतर मरीजो में साइन्युसाइटिस होता है जो एन्टीबायोटिक या साइन्युसाइटिस ठीक करने वाली दूसरी दवाइयो से ठीक नही होता। कुछ मरीजो में नाक को दो हिस्सों में बाँटने वाली सतह पर परत जमने लगती है। नाक से खून आता है और घाव बन जाते हैं जिससे सैंडल-नोज हो जाता है।
ग्लौटिस के नीचे की सांस की नली के सूजन से सांस की नली सिकुडने लगती है जिससे आवाज में भारीपन और सांस लेने में तकलीफ होती है। फेफडो में जगह- जगह सूजन होने से न्यूमोनिया के लक्षण होते है जिससे मरीज को सांस लेने में तकलीफ, खांसी और छाती में दर्द होता है।
गुर्दे पर प्रभाव शुरूआत में कुछ ही मरीजों में होता है पर जैसे-जैसे यह बीमारी बढती जाती है वैसे-वैसे यह प्रभाव बढ जाता है। जिससे पिशाब में व खून में गुर्दे की दशा बताने वाले टेस्ट बिगड़ जाते हैं और ब्लड प्रेसर बढ़ना जैसे लक्षण हो सकते हैं। आँखों के पीछे गांठ बन सकती हैं जिससे आँखें बाहर निकली हुई लगती हैं, या फिर कान के भीतर जिससे लगातार कान बह सकता है । सामान्य लक्षण जैसे वजन घटना, थकान का बढना, बुखार और रात में (नींद में) पसीने आना या चमड़ी व जोड़ों में लक्ष्ण प्राय पाए जाते हैं ।
एम पि ऐ में गुर्दे व फेफड़े प्रमुख्ता प्रभावित होते हैं।
6.4 इसे पहचाना कैसे जाये?
सांस की नली में सूजन और गुर्दे पर प्रभाव से होने वाले लक्षण हैं – पेशाब में खून और प्रोटीन का होना और खून में क्रिटनिन और यूरिया का बढना, जी पि ऐ की संभावना को बढ़ाते हैं।
खून की जाँच में प्राय प्रवजलन के लक्षण (इ इस आर , सी आर पि ) और ए न का की मात्रा बड़ी हुई पायी जाती है। बीमारी की पुष्टि अंग के टुकड़े की जाँच से भी की जाती है।
6.5 क्या इलाज़ है?
बच्चो में जी पी ऐ/एम पी ऐ की बीमारी को काबू में लाने के लिए
कॉर्टिकोस्टेरॉइड और
सिक्लोफोस्फेमाइड को प्रयोग में लाया जाता है। प्रतिरक्षा क्षमता कम करने वाले अन्य दवाएं जैसे रिटुक्सिमाब का भी प्रयोग स्तिथि के अनुसार किया जा सकता है। जब बीमारी काबू में आ जाती है तो उसे नियंत्रण में रखने के लिए अधिकतर
अज़थिोप्रीन ,
मेथोट्रेक्सऐट या
मिकोफेनोलट का प्रयोग किया जाता है।
अन्य इलाज़ में एंटीबायोटिक (कोट्रीमोक्साज़ोले लम्बे दौरान के लिए ), ब्लड प्रेसर कम करने वाली दवाएं, खून पतला करने वाली दवाएं (एस्प्रिन व अँटिकगुलांट्स ) और दर्द निवारक दवाएं (
नॉन स्टेरॉइडल दवाये)
7.1यह क्या है?
दिमाग की प्राइमरी अंजिटिस (पि ऐ सी न स ) बच्चों की दिमाग की बीमारी है जो दिमाग़ की छोटी और मध्यम श्रेणी की रक्त धमनियों को प्रभावित करती है। उसका कारण पता नहीं है पर कुछ बच्चो में पहले खसरा हुआ होता है। इससे लगता है कि शायद संक्रमण से इसकी प्रक्रिया शुरू होती है।
7.2 क्या यह सामान्य है?
यह बहुत दुर्लभ बीमारी है।
7.3 इसके क्या प्रमुख लक्षण हैं?
इसकी शुरआत अचानक एक अंग के हिलने या कमजोरी (अधरंग ) से ,मिरगी के दौरों या गंभीर सिरदर्द से हो सकती है। कभी कभी दिमाग के कई हिस्सों में प्रभाव के कारण व्यव्हार में परिवर्तन भी इसके शुरआती लक्षण हो सकते है। अधिकतर बुखार और खून की जाँच में प्रवजलन के लक्षण नहीं होते है।
7.4 इसका निरिक्षण कैसे किया जाता है?
खून की जाँच व दिमाग के पानी की जाँच दूसरी दिमाग की बिमारिओ जैसे संक्रमण, खून जमने के कारण होने वाली बीमारी को नकारने में सहायक होते हैं। दिमाग और रीड की हड्डी के एक्सरे ही इसके प्रमुख जाँचे हैं। मैग्नेटिक रेजोनेंस एंजियोग्राफी (म र अ ) या एंजियोग्राफी (एक्सरे ) से मध्यम या बड़ी नसों में प्रभाव को देखा जाता है। जाचों को बार बार कर बीमारी की प्रगति को देखा जाता है। यदि बच्चे में नस में प्रभाव नहीं दीखता है तो यह सोचा जाना चाहिए की छोटी नसे प्रभावित हैं। उसको दिमाग की बीओप्सी कर पता किया जा सकता है।
7.5 क्या इलाज़ है?
खसरे के बाद होने वाली बीमारी में थोड़े दौरान(३माह)
के लिए स्टेरॉयड देना से बीमारी रुक जाती है। यदि उचित हो तो वायरस के ऊपर काम करने वाली दवा भी दी जाती है (एकीक्लोवीर)। यह स्टेरॉयड उन्हीं को दिए जाते है जिनकी बीमारी एंजियोग्राफी में पायी जाती है पर ज्यादा बढ़ती नहीं है।यदि बीमारी बढ़ती है तो (जैसे दिमाग में कते बढ़ना ), दिमाग में खराबी आने को रोकने के लिए इम्यून सिस्टम को दबाने वाली दवाओं से सघन इलाज़ करना पढ़ता है। बीमारी की शुरआत में
सिक्लोफोस्फेमिडे दी जाती है और बाद में उसे के स्थान पर और दवाएं (अज़थीपरिन या मयकोफेनॉलाट) दी जाती है। खून को जमने की क्षमता काम करने वाली दवाएं (एस्पिरिन ) भी दिए जा सकते है।
कूटनिओउस् लुक्सिटोक्लास्टिक वास्कुलिटिस (यह भी कहे जाते हैं एलर्जिक वास्कुलिटिस) का मतलब हे खून की वािहिनी का किसी चीज़ के प्रति अनुचित प्रतिक्रिया के कारण होने वाला प्रज्वलन। दवाएं व संक्रमण बच्चों में प्राय कारण हैं। यह सामान्यता छोटी धमनी को प्रभावित करती है और चमड़ी की बीओप्सी मेँ विषेश प्रकार की दिखती है।
ह्य्पोकप्लेमेंटेमिक अर्टिकरिअल वास्कुलिटिस जिसमे खुजली वाले दाग जो चकते जैसे लगते है पर जल्दी खत्म नहीं होते। इस बीमारी मे खून में कॉम्प्लीमेंट की मात्रा कम पायी जाती है।
एओसिनिनोफिलिक पोल्यांजिटिस (चुरग स्ट्रेस सिंड्रोम )एक बहुत कम पायी जाने वाली बीमारी है। चमड़ी व अन्दरूनी अंगो में लक्षण के साथ साथ अस्थमा व् एक तरह के खून के कण जो इओसिनोफ़िल कहलाते है का खून व अंगो में बढ़ना।
कोगन सिंड्रोम एक कम पायी जाने वाली बीमारी है जिसमे आँख, कान का अन्दर का भाग प्रभावित होते है व चक्कर, कम सुनना व आँख में रोशिनी चुभना जैसे लक्षण होते हैं। अन्य अंगो पर भी बीमारी के प्रभाव के लक्षण हो सकते हैं।
बेशेट्स बीमारी को अन्य जगह पर लिखा गया है।