१.१ यह क्या होता है?
सिस्टमिक लुपस एरीदीमॅटोसस (एसएलई) एक ऑटोइम्मुन बीमारी है जो हमारे शरीर के विभिन्न अंगों को नुक्सान पहुंचा सकती है, ख़ास कर के त्वचा, दिमाग, गुर्दे,एवं खून की नसेंI यह बीमारी क्रोनिक यानि लम्बे समय तक चलने वाली होती है|ऑटोइम्मुन यानी यह इस बीमारी में हमारी प्रतिरक्षा शक्ति, जो हमें बैक्टीरिया, वायरस आदि से बचाने में मदद करती है, हमारे ही शरीर के विपरीत काम करने लगती है और हमारे शरीर के अंगों को नुक्सान पहुंचाने लगती है
सिस्टमिक लुपस एरीदीमॅटोसस बीसवीं सदी की शुरुआत से जानी गयी है|
सिस्टमिक यानी जो शरीर के विभिन्न अंगों पर असर करे,लुपस शब्द लैटिन भाषा में भेड़िये के लिए इस्तेमाल करा जाता है और एसएलई में रोगी के चेहरे पर दिखाई देने वाले तितली के आकर की लाली, भेड़िये के चेहरे पर दिखाई देने वाली सफ़ेद धारी से मिलती है| ग्रीक भाषा में " एरीदीमॅटोसस " का अर्थ लाल होता है और एस एल ई में चेहरे की लाली के कारण इस शब्द का प्रयोग किया गया है|
१.२ यह बीमारी कितनी आम है?
एसएलई की बीमारी विश्व भर में पहचानी जाती है|यह बीमारी एशियाई, अफ़्रीकी व् अफ़्रीकी अम्रेरिकन बच्चों में ज़्यादा पायी जाती है|यूरोप में यह बीमारी २५०० में से एक बच्चे में देखी जाती है और १५% बच्चे १८ वर्ष से काम आयु के होते हैं|१८ वर्ष से काम की आयु में शुरू होने वाली एसएलई की बीमारी को कई नाम दिए गए हैं जैसे:पीडियाट्रिक एसएलई, जुवेनाइल एसएलई, चाइल्डहुड एसएलई|
१५ से ४५ वर्ष की महिलाओं में यह बीमारी अधिक पायी जाती है और पुरूषों की तुलना में महिलाओं को यह बीमारी ९ गुना अधिक हो सकती है| किशोरावस्था से पहले लड़कों में यह बीमारी अधिक हो सकती है|
१.३ यह बीमारी किस कारण से होती है?
इस बीमारी के होने के ठोस कारण की जानकारी नहीं है| यह छुआछूत की बीमारी नहीं है व् एक से दूसरे को नहीं फैलती है|वैज्ञानिक सुरागों से यह जानकारी मिलती है की यह ऑटोइम्मुन बीमारी है जिसमे हमारे शरीर की प्रतिरक्षा शक्ति बाहर के शत्रुओं जैसे बैक्टीरिया, वायरस एवं अपने शरीर के अंगों के बीच में फर्क नहीं कर पाती और शरीर के विरूद्ध दूषित पदार्थ बनाने लगती है जो हमारे शरीर में इंफ्लैममेशन यानो प्रज्ज्वलन कर उसे हानि पहुंचाते हैं|प्रज्ज्वलित अंग गरम, लाल, सूजा हुआ अथवा छूने पर दुखन करता है|यदि शरीर में अधिक समय तक किसी अंग में प्रज्ज्वलन रहे तो वह उस अंग को हानि पहुंचा कर उसके कार्य को प्रभावित कर सकता है|इस बीमारी में इसीलिए प्रज्ज्वलन को काम करने के लिए दवा दी जाती है|
प्रतिरक्षा शक्ति की इस खराबी के लिए पर्यावरण में पाये जाने वाले कारण के अलावा जेनेटिक या अनुवांशिक कारण भी हो सकते हैं|किशोरावस्था में होने वाले हॉर्मोन परिवर्तन,ज्यादा समय धुप में रहना,वायरल बुखार एवं कई दवाइयाँ भी इस बीमारी को उभार सकती हैं|
१.४ क्या यह जेनेटिक या वंशानुगत रोग है?
यह बीमारी परिवार में पायी जा सकती है परन्तु यह बीमारी जेनेटिक नहीं होती|बच्चे अपने माता पिता से कुछ अनुवांशिक अंश लेते हैं जिनके कारन इस बीमारी के होने की संभावना बढ सकती है परन्तु बीमारी हो ही जाएगी ऐसा मानना गलत होगा|यह बीमारी परिवार में पायी जा सकती है परन्तु यह बीमारी जेनेटिक नहीं होती|बच्चे अपने माता पिता से कुछ अनुवांशिक अंश लेते हैं जिनके कारन इस बीमारी के होने की संभावना बढ सकती है परन्तु बीमारी हो ही जाएगी ऐसा मानना गलत होगा|यहाँ तक की जुड़वां बच्चों में भी यही बीमारी होने की संभावना ५०% से भी काम होती है|इस बीमारी के लिए कोई जेनेटिक टेस्टिंग या भ्रूण में इस बीमारी का पता लगाने की कोई जांच उपलब्ध नहीं है|
१.५. क्या इस बीमारी से बचाव किया जा सकता है?
इस बीमारी के होने की ठोस वजह की जानकारी न होने की वजह से इस बीमारी से बचाव नहीं किया जा सकता परन्तु जिस बच्चे को यह बीमारी हो गयी हो उसे कुछ परहेज़ की आवश्यकता होती है जिससे यह बीमारी बढ़ सकती है जैसे मानसिक तनाव,बहुत देर धुप में रहना,हॉर्मोन व् कुछ दवाइयाँ
१.६. क्या यह छुआछूत की बीमारी है?
नहीं,यह बीमारी छुआछूत की नहीं है व् एक व्यक्ति से दूसरी को नहीं हो सकती|
१.७.इस बीमारी के प्रमुख लक्षण क्या हैं?
यह बीमारी पूरी तरह से उभर कर आने में हफ्ते,महीने या साल भी लगा देती है|जल्दी थकान होना,शरीर में दर्द रहना,कभी कभी या हर दिन हल्का बुखार महसूस करना,वज़न में कमी आना, भूख न लगना इत्यादि इस बीमारी के शुरूआती लक्षण होते हैं|
समय के साथ साथ इस बीमारी में पाये जाने वाले विभिन्न लक्षण आने लगते हैं,अधिकतर त्वचा व् मुंह पर असर देखा जाता है|त्वचा पर विभिन्न तरह के दाग या धुप के कारण लाली आ सकती है|नाक के अंदर या मुंह में छाले आ सकते हैं|१/३ से १/२ बच्चों में गालों और नाक के ऊपर तितली के आकर की लाली वाला दाग दिखाई देता है|कुछ बच्चों में बालों का अत्याधिक झड़ना देखा जाता है|ठण्ड में हाथों का सफ़ेद,नीला व् लाल पड़ना भी इस बीमारी में देखा जाता है(रेनॉड फेनोमेनन)|जोड़ों की अकड़न व् सूजन,मांसपेशियों में दर्द,खून की कमी, हलकी चोट लगने पर तुरंत नील पड़ना,सर व् छाती में दर्द होना अथवा दौरे पड़ना भी इस बीमारी में देखे जाते हैं|कई बच्चों में गुर्दों पर प्रभाव देखा जाता है और गुर्दों पर प्रभाव बीमारी की तीव्रता बताता है|
उच्च रक्तचाप, पेशाब में खून अथवा प्रोटीन जाना,आँखों के ऊपर,चेहरे व् पैरों पर सूजन आना, गुर्दों के प्रभावित होने के प्रमुख लक्षण हैं|
१.८. क्या हर बच्चे की बीमारी एक जैसी होती है?
इस बीमारी के लक्षण सब में अलग तरह से आते हैं|किसी में ज्यादा तीव्रता के साथ तोह किसी में हलके|कुछ बच्चों में एक समय पर कुछ ही लक्षण दिखाई देते हैं व् समय के साथ बीमारी पूरी तरह उभर कर आती है| समय पर सही इलाज करने से बीमारी की तीव्रता काम हो जाती है|
१.९. क्या बच्चों में पायी जाने वाली एसएलई की बीमारी वयस्कों की बीमारी से भिन्न होती है?
आमतौर से बच्चों व् वयस्कों में यह बीमारी एक सी होती है पर बच्चों में यह बीमारी वयस्कों की तुलना में ज्यादा गंभीर होती है| बच्चों में इस बीमारी से गुर्दे व् दिमाग भी ज्यादा प्रभावित होते हैं|
२.१. इस बीमारी का निदान कैसे किया जाता है?
इस बीमारी का निदान रोगी के बताये लक्षण व् रोगी में पाये जाने वाले संकेत देख कर किया जाता है| इसके साथ खून व् पेशाब की जांच के साथ अन्य बीमारियां ना होने की स्तिथि में ही इस बीमारी का निदान किया जाता है|इस बीमारी के निदान में कठिनाई होती है क्योंकि रोगी में सभी संकेत व् लक्षण एक साथ नहीं प्राप्त होते|इस बीमारी को अन्य बिमारियों से भिन्न कर पाने के लिए अमेरिकन रहेूमतिस्म एसोसिएशन ने ११ लक्षणों की सूची बनाई है जो इस बीमारी के निदान में मदद करते हैं|
यह सूची उन लक्षणों को ध्यान में रख कर बनाई गयी है जो इस बीमारी में आमतौर पर पाये जाते हैं|११ में से काम से काम ४ लक्षण होने पर ही इस बीमारी का ठोस निदान किया जाता है,हालाँकि वरिष्ठ चिकित्सक ४ से काम लक्षण होने पर भी इस बीमारी का निदान कर पाते हैं|यह लक्षण निम्न हैं:
चेहरे पर तितली के आकर की लाली
यह लाली आँखों के नीचे गालों पर व् नाक के ऊपर होती है
धूप से त्वचा का प्रभावित होना
धूप से सेंसिटिविटी होने से धूप का प्रकोप अधिक होता है और कपड़ों से ढकी हुई त्वचा पर असर नहीं होता
डिस्कॉइड लूपस
यह पैसे के आकर का उभरा हुआ दाग होता है जिसके ऊपर से त्वचा की परत छूट जाती है,ठीक होने के पश्चात यह दाग छोड़ देता है|दूसरे समुदायों की तुलना में अफ़्रीकी बच्चों में यह अधिक पाया जाता है|
नाक व् मुंह में छाले
यह छाले नाक व् मुंह के अंदर होते हैं|इनमे दर्द नहीं होता|नाक के छालों में से खून भी बह सकता है|
गठिया
इस बीमारी में गठिया से अधिकतर बच्चे पीड़ित होते हैं|इसमें ऊँगली,कलाई,कोहनी,घुटने,कंधे आदि जोड़ों में दर्द व् सूजन आ जाती है|यह सूजन एक जोड़ से दूसरे में आ सकती है या दोनों तरफ के एकसे जोड़ों में भी आ सकती है|जोड़ों में अधिकतर टेढ़ापन नहीं आता|
प्लूराइटिस
फेफड़े की ऊपरी झिल्ली यानी प्लूरा के प्रज्ज्वलन को प्लूरिसी कहते हैं और ह्रदय की झिल्ली यानो पेरीकार्डियम के प्रज्ज्वलन को पेरिकार्डिटिस कहते हैं|इन नाज़ुक झिल्लिओं के प्रज्ज्वलन के कारण ह्रदय व् फेफड़ों के इर्द गिर्द पानी इक्कठा हो जाता है|फेफड़ों के इर्द गिर्द पानी आने से श्वास लेने में तकलीफ होती है|
गुर्दों पर प्रभाव
अधिकतर बच्चों के गुर्दे इस बीमारी से प्रभावित होते हैं,किसी में कम व् किसी में बहुत अधिक प्रभाव देखा जाता है|शुरुआत में गुर्दे प्रभावित होने का कोई लक्षण नहीं दिखता व् पेशाब एवं गुर्दों के कार्य की खून जांच से ही इस खराबी का पता किया जाता है| अधिक खराबी होने पर पेशाब में अधिक प्रोटीन बहार निकलता है व् पैरों और आखों के इर्द गिर्द सूजन दिखाई देती है|
केंद्रीय तंत्रिका तंत्र
दिमाग पर प्रभाव से सर दर्द,दौरे,व् मनोविकार जैसे ध्यान न लगा पाना,याद न रख पाना,उदासी या अवसाद,मनोविकृति(एक गंभीर मानसिक रोग जिसमे सोच व् व्यव्हार परिवर्तित हो जाते हैं)हो सकते हैं|
रक्त कण के विकार
रक्त कण एंटीबाडीज के प्रभाव से नष्ट होने लगते हैं|लाल रक्त कण(जो शरीर के विभिन्न अंगों तक ऑक्सीजन पहुंचाते है)के टूटने को हेमोल्य्सिस कहते हैं और इससे हेमोल्य्टिक एनीमिया हो सकता है|रक्त कण नष्ट होने की प्रक्रिया धीमी व् काम हानिकारक हो सकती है या अधिक रक्त कण एकदम नष्ट होने से आपात्कालीन स्तिथि आ सकती है|
रक्त के सफ़ेद कण भी एसएलई में कम हो जाते हैं पर यह गंभीर नहीं होता|सफ़ेद कण की कमी को लुकोपीनिआ कहते हैं|
रक्त के जमाव में सहायता करने वाले कण जो की प्लेटलेट कहलाते हैं, उनकी कमी को थ्रोम्बोसीटोपेनिअ कहते हैं|प्लेटलेट कण की कमी से बच्चों के आंत,दिमाग,गुर्दे व् चमड़ी से रक्त रिस सकता है|
प्रतिरक्षा शक्ति की खराबी
प्रतिरक्षा शक्ति की खराबी उन एंटीबाडीज की खराबी होती है जो इस बीमारी की ओर इशारा करती है|
एंटिफॉस्फोलिपिड एंटीबाडी का होना(अपेंडिक्स-१)
एंटी नेटिव डीएनए एंटीबाडी(यह एंटीबाडी शरीर के अनुवांशिक तत्व के खिलाफ होती है)यह एंटीबाडी ख़ास लुपस में ही पायी जाती है व् इसकी मात्र का माप करने से चिकित्सक को लुपस की दशा मापने में मदद मिलती है|
एंटी एसएम एंटीबाडी: यह एंटीबाडी सबसे पहले मिस स्मिथ नामक महिला में देखी गयी थी|यह एंटीबाडी एस एल ई की बीमारी में पायी जाती है|
एंटी न्यूक्लीयर एंटीबाडी (ऐएनए)
यह एंटीबाडी रक्त कण के न्यूक्लियस के विरुद्ध होती हैं व् लुपस के लगभग शतप्रतिशत मरीज़ों के रक्त में पायी जाती हैं|परन्तु सिर्फ ऐएनए का पाया जाना ही इस बीमारी का सबूत नहीं होता,यह सिर्फ एक लक्षण है|ऐएनए ५-१५% स्वस्थ बच्चों में भी पाया जाता है|
इन जांचों का क्या महत्व है?
इन जांचों के द्वारा हम लुपस की बीमारी की पुष्टि कर सकते हैं व् यह भी देख सकते हैं की इस बीमारी की वजह से शरीर के कौन कौन से अंग प्रभावित हुए हैं|
इस बीमारी में समय समय पर रक्त व् पेशाब की जांच करना ज़रूरी है जिससे इस बीमारी की तीव्रता व् दवा के दुष्परिणाम अथवा दवा के असर के बारे में जानकारी मिल सके|
सामान्य जाँचे विभिन्न अंगों के असर को दर्शाती हैं|
ईएसआर(एरीथ्रोसाइट सेडीमेंटशन रेट) व् सीआरपी (सी रिएक्टिव प्रोटीन),दोनों ही प्रज्जवलन में बढ़ी हुई मात्र में पाये जाते हैं|लुपस की बीमारी में सी आर पी ठीक भी हो सकता है व् सी आर पी अधिक होने से कीटाणु का संक्रमण होने की संभावना होती है|
रक्त कण की जांच से एनीमिया, सफ़ेद कण की कमी व् प्लेटलेट की कमी के विषय में जानकारी मिलती है|
सीरम प्रोटीन एलेक्ट्रोफोरेसिस से गामा ग्लोब्युलिन की मात्र का अनुमान लगता है (जो इस बीमारी में प्रज्ज्वलन व् एंटीबाडी अधिक होने से बढ़ जाते हैं|)
एल्ब्यूमिन: गुर्दे पर प्रभाव होने से यह कम हो जाता है
रक्त की सामान्य जांच जैसे यूरिया,नाइट्रोजन,इलेक्ट्रोलाइट इत्यादि से गुर्दे पर प्रभाव,जिगर व् मांसपेशियों पर प्रभाव देखा जा सकता है|
लिवर फंक्शन टेस्ट व् मसल एंजाइम: इनके द्वारा जिगर व् मांसपेशियों पर प्रभाव देखा जा सकता है|
गुर्दे पर प्रभाव देखने के लिए बीमारी की शुरुआत व् समय समय पर पेशाब की जांच करना अनिवार्य है|पेशाब की जांच में यदि लाल रक्त कण व् एल्ब्यूमिन पाया जाता है तो वह गुर्दे के प्रज्ज्वलन की ओर संकेत करता है|कभी कभी २४ घंटे का पेशाब इक्कट्ठा कर उसमें एल्ब्यूमिन की जांच करनी पड़ती है जो गुर्दे की बीमारी को जल्दी पकड़ पाने में मदद करती है|
कॉम्प्लीमेंट लेवल: कॉम्प्लीमेंट प्रोटीन हमारे शरीर की जन्मजात प्रतिरोधक शक्ति का हिस्सा होते हैं|कुछ कॉम्प्लीमेंट(सी३ व् सी ४)प्रज्ज्वलन में काम हो जाते हैं व् लुपस की बीमारी की तीव्रता दर्शाते हैं,ख़ास कर गुर्दे की बीमारी का अनुमान कॉम्प्लीमेंट कम होने से लगाया जाता है|
शरीर के विभिन्न अंगों पर लुपस के प्रभाव को देखने के लिए अब कई जाँचे उपलब्ध हैं,जैसे बायओपसी(किसी अंग के टुकड़े की जांच), गुर्दे की बायोपसीअधिकतर तब की जाती है जब गुर्दे पर प्रभाव देखा जाता है|इस जांच से गुर्दे पर लुपस के प्रभाव के बारे में जानकारी मिलती है व् सही दवाएं देने में मदद मिलती है|त्वचा की बायोपसी से लुपस के कारन त्वचा पर होने वाले प्रभाव व् त्वचा की रक्त कोशिकाओं में होने वाले प्रज्ज्वलन के विषय में जानकारी मिलती है|
छाती का क्ष किरण (दिल व् फेफड़े के लिए),इकोकार्डिओग्राफी, इलेक्ट्रोकार्डिओग्राफी,इलेक्ट्रोएन्सेफलोग्राफी,पल्मोनरी फंक्शन टेस्ट,एमआरआई,दिमाग के स्कैन,अन्य अंगों की बायोपसी इत्यादि अन्य जाँचे हैं जो इस बीमारी में की जा सकती हैं|
२.३ क्या इसका इलाज संभव है?
अभी इस बीमारी को जड़ से समाप्त करने का कोई इलाज संभव नहीं है| इस बीमारी का इलाज कर इससे होने वाली जटिलताओं का निदान किया जा सकता है व् विभिन्न अंगों को प्रभावित होने से बचाया जा सकता है| शुरुआत में बीमारी का भार अधिक होने के कारण ज़्यादा और अधिक मात्र में दवाएं इस्तेमाल करनी पड़ती हैं पर कुछ समय में कुछ दवाओ के साथ बच्चों की तबियत बिलकुल ठीक रह सकती है
२.४ इस बीमारी के लिए क्या इलाज उपलब्ध हैं?
इस बीमारी के लिए बच्चों में उपयोग के लिए कोई भी दवा अधिकृत नहीं है और अधिकांश दवाएं शरीर में लुपस के कारण होने वाले प्रज्ज्वलन को काम करने में ही मदद करती हैं|
इस बीमारी के इलाज के लिए ५ तरह की दवाएं इस्तेमाल की जाती हैं,जो निम्न हैं:
नॉन स्टेरॉइडल एंटी इंफ्लेमेटरी ड्रग्स (एन एस ऐ आई डी)
एन एस ऐ आई डी जैसे आइबूप्रोफेन अथवा नेप्रोसीन गठिया के कारण होने वाले दर्द को काम करने में मदद करती हैं|इन दवाईओं को शुरुआत में अधिक मात्र में दे कर इनकी मात्र गठिया काम होने के साथ काम कर दी जाती है| यह दवाएं कई प्रकार की होती हैं,एस्पिरिन भी इसी गुट की एक दवा है जो जोड़ों के दर्द में इस्तेमाल की जाती है|बच्चों में एस्पिरिन काम मात्र में तब दी जाती है जब रक्त के जमने व् रक्त का थक्का बनने की सम्भावना होती है|
एंटी मलेरिअल ड्रग्स
एंटी मलेरिअल ड्रग्स जैसे
हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन इस बीमारी में होने वाली त्वचा की तकलीफ का इलाज व् उसकी रोकथाम करने में बहुत मदद करती हैं|इन दवाइओं का असर होने में कभी कभी कुछ महीने भी लग जाते हैं| शुरुआत में ही यह दवाएं देने से लुपस की तीव्रता व् उसके कारण से होने वाली गुर्दे, ह्रदय व् अन्य अंगों की खराबी को रोक जा सकता है|मलेरिया व् लुपस का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है पर हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन शरीर की प्रतिरोधक शक्ति को काबू में रखने में मदद करती है|
कॉर्टिकोस्टेरॉइड्स
कॉर्टिकोस्टेरॉइड्स,जैसे प्रेड्निसोन व् प्रेड्निसोलोन, प्रज्ज्वलन को काम कर के प्रतिरोधक शक्ति की खराबी को कम करते हैं|यह लुपस की बीमारी की रोकथाम के लिए प्रमुख दवाएं हैं| कुछ बच्चों की हलकी बीमारी के लिए प्रेड्निसोलोन व् हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन ही पर्याप्त होते हैं|जब बीमारी अधिक तीव्र होती है या अंदरूनी अंगों की खराबी के साथ होती है तब इन दवाइयों को इम्मुनोसप्प्रेस्सिव डुग्स के साथ मिला कर दिया जाता है|बिना कर्टिकोस्टेरॉयड्स की मदद के शुरुआत में लुपस की बीमारी पर काबू नहीं पाया जा सकता| कुछ बच्चों को यह दवाएं महीनों ये कुछ साल के लिए भी लेनी पड़ सकती हैं| बीमारी की तीव्रता व् अंगों पर प्रभाव के अनुसार कॉर्टिकोस्टेरॉइड्स की मात्रा निर्धारित की जाती है| अधिक मात्रा में या नस के द्वारा यह दवा तब दी जाती है जब गुर्दे, दिमाग व् लाल रक्त कण पर लुपस का प्रभाव होता है| इसको लेने से बच्चे एकदम से अच्छा महसूस करने लगते हैं पर लम्बे समय तक अधिक मात्रा में यह दवाएं हानिकारक होती हैं,इसीलिए बीमारी काबू में आते ही इनकी मात्रा जल्दी से जल्दी काम कर दी जाती है| इन दवाओं को धीरे धीरे काम किया जाता है व् रक्त की जांच व् बच्चे की जांच कर के इनकी मात्रा काम की जाती है जिससे बीमारी दबी रहे व् वापिस न आ पाये|
कभी कभी कुछ किशोरावस्था के बच्चे इन दवाइयों के दुष्परिणाम के कारण या अच्छा महसूस न करने के कारण इन दवाइयों की मात्रा अपने आप काम या अधिक कर लेते हैं| कोर्टिसोन हमारे शरीरमें भी बनता है, पर जब हम यह अधिक मात्रा में लेते हैं तब हमारे शरीर में इसकी उत्पादन बंद हो जाता है,इसीलिए बच्चों व् उनके अभिभावकों के लिए यह जानना महत्वपूर्ण है की यह दवाएं अपने आप बिना चिकित्सक की अनुमति के कम,ज्यादा या बंद करना खतरनाक व् जानलेवा हो सकता है|
यदि कॉर्टिकोस्टेरॉइड्स लम्बे समय तक उपयोग किये जाते हैं तब हमारे शरीर के एड्रेनल ग्रंथि इनका उत्पादन बंद कर देती हैं|कोर्टिसोन हमारे रक्तचाप को बनाये रखने में मदद करता है व् एकदम इसे काम कर देना जानलेवा भी हो सकता है| इसके अलावा एकदम से इसे बंद कर देने से बीमारी वापिस भी आने का खतरा होता है|
नॉन बायोलॉजिकल डिजीज मोडिफ्यिंग ड्रग्स
यह दवाएं,जैसे की
एज़ाथाएोप्रीन,
मेथोट्रेक्सेट,
साइक्लोफोस्फेमाईड व्
माइकोफनोलेट, कॉर्टिकोस्टेरॉइड्स से भिन्न रूप से काम करती हैं|
इनका उपयोग चिकित्सक तब करते हैं जब लुपस की बीमारी सिर्फ कॉर्टिकोस्टेरॉइड्स के उपयोग से काबू में नहीं आ पाती| कॉर्टिकोस्टेरॉइड्स के दुष्प्रभाव को काम करने व् बीमारी की तीव्रता को शांत करने के लिए इनका उपयोग किया जाता है|
एज़ाथाएोप्रीन व् माइकोफनोलेट गोलियों के रूप में, साइक्लोफोस्फेमाईड गोलियों व् नस के द्वारा व् मेथोट्रेक्सेट गोलियों व् त्वचा के अंदर सुई के द्वारा दिए जाते हैं|
बायोलॉजिक (डी एम ऐ आर डी)
बायोलॉजिक (डी एम ऐ आर डी) दवाएं एक विशेष प्रकार की दवाएं होती हैं जो अनुसन्धान के बाद बनाई जाती हैं|यह दवाएं या तो किसी एंटीबाडी के बनने को रोकती हैं या किसी एंटीबाडी के प्रभाव को रोकती हैं|इसी गुट की एक दवा जिसका नाम रीतुक्सिमैब है,इस बीमारी में तब इस्तेमाल करी जाती है जब अन्य साधारण दवाएं पूरी तरह बीमारी पर काबू नहीं कर पाती|बेलीमुमाब नामक एक अन्य दवा इसी गुट में शामिल है जो शरीर के बी सेल्स को लक्षय बनती है व् ऑटोएन्टीबॉडी का उत्पादन कम करती है,फिलहाल यह दवा लुपस के व्यसक मरीज़ों में इस्तेमाल की जाती है|बच्चों में इन दवाओं के उपयोग पर अभी अनुसन्धान चल रहा है|
ऑटोइम्मुन बिमारिओं खासकर लुपस पर सक्रिय रूप से अनुसन्धान चल रहा है जिससे ऐसे दवाएं बनाई जा सके जो पूरी प्रतिरोधक शकती को कम न करके सिर्फ उन सेल्स को लक्ष्य बनाये जो इस बीमारी में खास रूप अदा करते हैं|आजकल इन दवाओं पर बहुत अनुसन्धान चल रहा है जिससे निश्चित ही लुपस से पीड़ित बच्चों का भविष्य बेहतर हो पायेगा|
२.५. इन दवाओं के दुष्प्रभाव क्या हैं?
ये दवाएँ लुपुस की बीमारी के सभी लक्षणों को दूर करने में मदद करती है।अन्य दवाओं की तरह इन के भी दुष्प्रभाव होते हैं।इनकी जानकारी
ड्रग थेरेपी के अंतर्गत दी गई है।
l=15*t1>नॉन स्टेरॉइडल एंटी इंफ्लेमेटरी ड्रग्स (एन एस ऐ आई डी) कुछ खाने के बाद लेने चाहिये नहीं तो वे पेट में जलन पैदा कर सकते हैं।इसी क़े साथ इन दवाओं की वजह से कभी कभी आसानी से नील पड़ जाना अथवा,जिगर व गुर्दे पर प्रभाव भी पड़ सकता है।एंटी मलारिअल दवाएं आँख की रेटिना नामक परत में बदलाव ला सकतीं हैं,इसीलिए मरीज़ों को नियमित रूप से आँखों की जांच आँखों के डॉक्टर द्वारा करवानी चाहिए|
कॉर्टिकोस्टेरॉइड्स के कम व अधिक समय के दुष्प्रभाव हो सकते हैं| इन दवाओं को लम्बे समय तक अधिक मात्र में लेने से इनके दुष्प्रभाव होने का खतरा अधिक होता है| इन दवाओं के मुख्य दुष्प्रभाव निम्न हैं:
शरीर की बनावट में फर्क आना(जैसे,गालों का फूलना,आँखों पर सूजन आना, शरीर पर अधिक बाल उगना,त्वचा पर बैंगनी धारियां पड़ना,मुंहांसे होना अथवा जल्दी नील पड़ जाना ) वज़न को नियंत्रित करने के लिए खान पान व् कसरत का विशेष ध्यान रखना पड़ता है|
संक्रमितरोग जैसे क्षय रोग व् चिकन पॉक्स होना का अधिक खतरा होता है|जो बच्चा यह दवाएं ले रहा होता है व् चिकन पॉक्स के मरीज़ के संपर्क में आता है ,उसे तुरंत अपने चिकित्सक को मिलना चाहिए| चिकन पॉक्स से तत्काल सुरक्षा के लिए ऐसे बच्चों को पहले से बनी एंटीबाडी दी जानी चाहिए|
पेट की तकलीफ जैसे बदहज़मी होना या पेट में जलन होना|इस तकलीफ के लिए एंटी अलसर दवाएं दी जाती हैं|
विकास में कमी होना
कम देखे जाने वाले दुष्प्रभाव:
उच्च रक्तचाप
मांसपेशियों में कमज़ोरी(बच्चों को सीढियाँ उतरने,चढ़ने में व् बैठ कर खड़े होने में कठिनाई होती है)
ग्लूकोस के पाचन में दिक्कत,खास कर जब अनुवांशिक रूप से मधुमेह होने की सम्भावना हो|
मिजाज़ में परिवर्तनआना,उदास रह्ना
आंखों में तकलीफ जैसे मोतिया बिंद बनना अथवा आंख का प्रेशर बढ़ना(ग्लौकोमा)
हड्डियों क पतला पड़ना(ऑस्टियोपोरोसिस)|यह दुषप्रभाव कसरत करने,कैल्शियम से भरपूर खान पान व् कैल्शियम एवं विटामिन डी लेने से नहीं होता|
यह ध्यान रखना ज़रूरी है की यह दुष्प्रभाव स्टेरॉयड्स कम करने से कम या पूरी तरह खत्म हो जाते हैं|
डी एम ऐ आर डी(बायोलॉजिक व् नॉन बायोलॉजिक) भी दुष्प्रभाव कर सकते हैं जो कभी कभी गंभीर भी हो सकते हैं|
२.६. इलाज कब तक चलना चाहिए?
जब तक इस बीमारी के लक्षण रहते हैं तब तक इलाज बंद नहीं होना चाहिए|यह एक मानी हुई बात है की बच्चों में स्टेरॉयड्स को पूरी तरह हटा पाना बहुत कठिन होता है| यदि काम से काम मात्र में भी स्टेरॉयड्स लेते हुए बच्चों की बीमारी के लक्षण दबे रहे तब भी उनकी बीमारी लम्बे समय तक शांत रह सकती है| कई मरीज़ों में बीमारी बार बार उभर कर न आ पाये इसके लीए यही एक बेहतर मार्ग सिद्ध हो सकता है|
२.७. पारम्परिक इलाजों का इस बीमारी में क्या योगदान है?
कई पारम्परिक इलाज उपलब्ध होने के कारण माता पिता व् परिवार जन भ्रमित हो सकते हैं|यदि आप अपने बच्चे के लिए इन औषधियों का उपयोग करना चाहते हैं तो पहले आने बालरोग चिकित्सक से सलाह अवश्य कर लें क्योंकि कभी कभी इन औषधियों के दुष्प्रभाव हो सकते हैं व् दो प्रकार की पैथी की दवा मिला कर देने से बच्चे को अधिक हानि पहुँच सकती है|यह समझना अति आवश्यक है की जब लुपस की बीमारी को काबू में रखने के लिए दवाएं दी जा रही होती हैं,तब उन्हें यकायक बंद करने से बीमारी की तीव्रता बढ़ सकती हैव् जानलेवा हो सकती है|इसीलिए किसी अन्य प्रकार की औषधि देने से पूर्व अपने चिकित्सक से सलाह अवश्य कर लें|
२.८. समय समय पर कौन सी जाँचे आवश्यक हैं?
नियमित रूप से चिकित्सक से परामर्श इस बीमारी में आवश्यक होता है क्योंकि इस बीमारी में अधिकांश तकलीफें यदि जल्दी पहचान ली जाएं तो उनका समय पर निदान किया जा सकता है|आमतौर से हर ३ महीने में चिकित्सक से परामर्श अनिवार्य होता है|ज़रुरत के अनुसार विभिन्न परामर्श किये जाने चाहिए जैसे: बाल चार्म रोग विशेषज्ञ,बाल रक्त रोग विशेषज्ञ,बाल गुर्दारोग विशेषज्ञ इत्यादि|इनके अलावा साइकोलॉजिस्ट,सामाजिक कार्यकर्ता,आहार विशेषज्ञ व् अन्य स्वास्थ देखभाल कर्मचारी भी लुपस से पीड़ित बच्चों की देखबहाल में मदद करते हैं|
इन बच्चों की कुछ जाँचें नियमित रूप से होनी चाहिए जैसे: रक्तचाप का माप,पेशाब की जांच,रक्त कण व् चीनी की मात्र की जांच,कोएगुलेशन टेस्ट,कॉम्प्लीमेंट लेवल,डी एस डी एन ऐ इत्यादि| जब लुपस के लिए दवाएं चल रही होती हैं तब नियमित रूप से रक्त कण की जांच अनिवार्य होती है जिससे यह जांच हो जाये की यह दवाएं रक्त कण के बनने में कोई खराबी तो नहीं कर रहीं|
२.९. यह बीमारी कब तक जारी रहती है?
जैसा पहले बताया गया है,इस बीमारी का कोई ठोस निदान नहीं है|नियमित रूप से बाल रोग विशेषज्ञ की सलाह के अनुसार दवाएं लेते रहने से इस बीमारी के लक्षण पूरी तरह समाप्त हो सकते हैं|अन्य कारकों के अलावा,पूरी तरह दवा ना लेना,संक्रमित रोग होना,मानसिक दबाव होना व् अधिक धुप में रहने से यह बीमारी तीव्र हो सकती है|इस को "लुपस फलएर" भी कहा जाता है|
२.१०.लम्बे दौरान में इस बीमारी में क्या होता है?
इस बीमारी का लम्बे दौर के बाद परिणाम दवाओं के प्रयोग से बहुत अच्छा हो सकता है|इस बीमारी से पीड़ित कई बच्चे लम्बे समय तक ठीक रहती हैं|कुछ बच्चों में यह बीमारी गंभीर रूप ले ले कर बचपन व् किशोरावस्था में भी रह सकती है व् इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं|
बच्चों में इस बीमारी का परिणाम इस पर भी निर्भर करता है की अंदरूनी अंगों पर कितना प्रभाव है|जिन बचूं को दिमाग पर अथवा गुर्दे पर प्रभाव होता है,उनको अधिक लम्बे समय तक दवाओं की आवश्यकता पड़ती है|इसके विपरीत जिन बच्चों को हलकी सी त्वचा की तकलीफ व् गठिया का असर होता है,उनकी बीमारी दवाओं के माध्यम से जल्दी ही काबू में आ जाती है व् लम्बे समय तक शांत रहती है|पर किसी एक बच्चे के लिए यह निश्चित तौर पर कह पाना बहुत मुश्किल है की उसकी बीमारी का दौर कैसा रहेगा|
२.११.क्या यह बीमारी जड़ से समाप्त हो सकती है?
यह बीमारी,यदि शुरुआत में ही पकड़ ली गयी व् इसका इलाज शुरू कर दिया गया तब लम्बे समय के लिए इसके लक्षण समाप्त हो जाते हैं|परन्तु यह एक जीर्ण रोग है जो कभी कभी अप्रत्याशित रूप से सामने आ सकता है|
३.१.इस बीमारी का बच्चों व् उनके परिवार के रोज़मर्रा के जीवन का क्या प्रभाव पड़ता है?
एक बार इलाज हो जाये और बीमारी के लक्षण समाप्त हो जाये,उसके बाद बच्चे अधिकतर सामान्य दिनचर्या व्यतीत कर सकते हैं|अधिक धूप व् अधिक यू.वी किरणें,जैसे की डिस्को लाइट में होती हैं,इनसे विशेष बचाव की आवश्यकता होती है|इनकी वजह से बीमारी की तीव्रता बढ़ सकती है|खास तौर से इन बच्चों को समुद्र के अथवा तरणताल के नज़दीक धूप में बहुत समय व्यतीत नहीं करना चाहिए| नियमित रूप से ऐसी सनस्क्रीन क्रीम का प्रयोग करना चाहिए जिसका एस पी ऍफ़( धूप से बचाव की क्षमता) ४० से अधिक हो|१० वर्ष की आयु के बाद यह अनिवार्य है की इस बीमारी से ग्रस्त बच्चे अपनी देखभाल में सहायता करें व् धीरे धीरे अपनी दवाओं के विषय में जाने व् उन्हें समय पर लेने की ज़िम्मेदारी में भी भागी बनें| बच्चों व् अभिभावकों को लुपस के लक्षणों के विषय में जानकारी होनी चाहिए जिससे यदि कभी बीमारी की तीव्रता बढ़ती है तब उन्हें तुरंत पता चल सके| लुपस के कुछ लक्षण, जैसे हर समय थकान महसूस करना या कुछ न करने की इच्छा होना, बीमारी की तीव्रता शांत होने के बाद भी बने रह सकते हैं| बच्चों को शारीरिक कसरत पर विशेष ध्यान देना चाहिए इससे वज़न ठीक रहता है व् हड्डियों की मज़बूती भी बानी रहती है और शरीर में चुस्ती रहती है|
३.२. शिक्षा के विषय में क्या प्रभाव हो सकते हैं?
जो बच्चे लुपस से प्रभावित होते हैं वह विद्यालय जा सकते हैं व् उन्हे रोज़ विद्यालय जाना चाहिए|सिर्फ जब लुपस की बीमारी की तीव्रता बढ़ी हुई हो,उस समय शिक्षण प्रभावित हो सकता है|यदि लुपस से दिमाग पर प्रभाव न पड़ा हो तब बच्चों के सोचने व् समझने की शक्ति पर कोई दुष्प्रभाव नहीं होता| दिमाग पर बीमारी के प्रभाव के कारण ध्यान केंद्रित न कर पाना ,यादाश्त कमज़ोर होना,मिज़ाज़ में परिवर्तन आना,सिर दर्द होना आदि दिक्कतें हो सकती हैं| इन दिक्कतों के लिए विशेष शिक्षण साधनों का उपयोग किया जा सकता है|जहाँ तक संभव हो बच्चों को न केवल शैक्षिक योग्यता बल्कि पाठ्येतर गतिविधियों में भाग लेने के लिए भी प्रोत्साहित करना चाहिए| शिक्षकों को बीमारी के विषय में अवगत करा देना चाहिए जिससे वह बीमारी की तीव्रता के अनुसार बच्चे की सहायता कर पाएं|
३.३ खेल कूद के विषय में क्या ध्यान रखना होता है?
खेल कूद में किसी भी प्रकार की रोक टोक की कोई आवश्यकता नहीं होती और न ही करनी चाहिए| जिस समय बीमारी शांत होती है,तब नियमित वर्जिश को प्रोत्साहित करना चाहिए|तेज़ चलना,तैराकी,साइकिलिंग इत्यादि एरोबिक वर्जिश बच्चों के लिए बहुत अच्छी रहती हैं|बाहरी गतिविधियों के समय धूप से बचाव के लिए पूरी बांह के कपड़े,सनस्क्रीन क्रीम,व् भरी दोपहर में धूप से बचाव जैसी कुछ बातों का ध्यान रखना आवश्यक है|अत्यधिक थकावट वाली वर्जिश नहीं करनी चाहिए|बीमारी की तीव्रती जब बढ़ी हुई होती है उस समय वर्जिश क्षमता के अनुसार ही करनी चाहिए|
३.४.खान पान के विषय में बतायें
इस बीमारी के इलाज के लिए कोई विशेष खान पान नहीं है| सभी की तरह इन बच्चों को भी स्वस्थ,संतुलित आहार लेना चाहिए|यदि बच्चे स्टेरॉयड्स ले रहे हों,तब कम नमक व् कम चर्बी वाले खाद्य पदार्थ लेने चाहिए जिससे उच्च रक्तचाप,मधुमेह व् अत्यधिक वज़न बढ़ने से बचाव हो सके|इसके अतिरिक्त विटामिन डी व् कैल्शियम की पूरक खुराक भी लेनी चाहिए जिससे हड्डीआं पतली न पड़ पाएं|अन्य कोई भी विटामिन इस बीमारी में खास मदद करता हो इसका कोई वैज्ञानिक सबूत नहीं है|
३.५.क्या वातावरण से इस बीमारी पर प्रभाव पड़ता है?
यह तो जानी हुई बात है की इस बीमारी में धूप में अधिक समय व्यतीत करने से त्वचा पर नए धब्बे उभर सकते हैं और वह लुपस की बीमारी की तीव्रता बढ़ा सकते हैं|इसी लिए धूप के प्रभाव से बचने के लिए इन बच्चों को धूप से बचाव की क्रीम(सन स्क्रीन)हमेशा उपयोग करनी चाहिए|जब धूप में तेज़ी हो तब प्रत्येक ३ घंटे में सन स्क्रीन का उपयोग करना चाहिए व् पूरी बहाँ के कपड़े व् चौड़ी किनारी की टोपी पहननी चाहिए|यदपि कई सन स्क्रीन पानी रोधक होते हैं,फिर भी पानी के उपयोग अथवा तैराकी के पश्चात इनका उपयोग दोबारा से करना चाहिए|धूप में निकलने के काम से काम ३० मिनिट पहले सन स्क्रीन का उपयोग करना चाहिए|यू वी किरणें बादलों को सरलता से पार कर लेती हैं, इसी लिए बादल होने पर भी सन स्क्रीन का उपयोग करना चाहिए|फ्लोरोसेंट लाइट,हैलोजन लाइट, व् कंप्यूटर के मॉनिटर की रौशनी से भी यू वी किरणें निकलती हैं जो कुछ बच्चों को नुक्सान पहुंचा सकती हैं,इसीलिए घर के भीतर भी सन स्क्रीन का उपयोग करना चाहिए व् कंप्यूटर स्क्रीन के लिए विशेष यू वी फ़िल्टर का उपयोग करना चाहिए|
३.६. क्या इन बच्चों का टीकाकरण कर सकते हैं?
इन बच्चों में कीटाणुओं से होने वाली बीमारियां अधिक हो सकती हैं इसीलिए इन बच्चों में टीका करण का विशेष महत्व है|बाल अवस्था में किये जाने वाले सभी टीका करण इन बच्चों को दिए जाने चाहिए|जिस समय बीमारी की तीव्रता अधिक हो या ऊँची मात्र में स्टेरॉयड्स अथवा बायोलॉजिक दवाएं दी जा रही हों,उस समय जीवित वायरस वाले टीके नहीं दिए जाने चाहिए(जैसे: एम,एम आर का टीका,पोलियो ड्रॉप्स,चिकन पॉक्स का टीका )पोलियो की ड्रॉप्स घर में रह रहे अन्य सदस्यों को भी नहीं दी जानी चाहिए|
नुमोकोकल,मेनिंगोकोकल व् वार्षिक इन्फ्लुएंजा के प्रति टीका करण अवश्य किया जाना चाहिए|किशोरावस्था के बच्चों को एच.पी.वी. का टीका भी लगाना चाहिए|
यह ध्यान रखने की बात है की इन बच्चों में टीकों की क्षमता आम बच्चों से काम होती है, इसलिए इन बच्चों को टीके बार बार लगाने पड़ सकते हैं|
३.७. यौन प्रक्रिया,गर्भ धारण अथवा गर्भरोध के विषय में क्या सलाह है?
यौन प्रक्रिया में इस बीमारी की वजह से कोई तकलीफ नहीं होती व् कोई विशेष प्रतिबन्ध नहीं है|पर गर्भ धारण करने के पहले बीमारी की तीव्रता शांत होनी चाहिए अथवा गर्भ धारण करने के पहले दवाएं काम होनी चाहिए क्योंकि अधिकतर दवाएं गर्भ में पल रहे शिशु में विकृति पैदा कर सकतीं हैं|अधिकांश महिलाओं को गर्भ धारण करने में कोई दिक्कत नहीं होती व् वह एक स्वस्थ शिशु को जन्म दे सकतीं हैं|गर्भ धारण नियोजित रूप से होना चाहिए व् उसका सही समय तब होता है जब बीमारी शांत हो ख़ास कर की गुर्दे की तकलीफ|इन महिलाओं को गर्भ पूर्ण करने में कठिनाई होती है या तो दवाओं के कारण या बीमारी के कारण|इस बीमारी में समय से पहले शिशु का जन्म,गर्भ गिर जाना व् शिशु में विकृति{अपेंडिक्स २} होने का खतरा रहता है|जिन महिलाओं में एंटी फॉस्फोलिपिड एंटीबाडी(अपेंडिक्स १) की मात्रा अधिक होती है उनमें गर्भ से सम्बंधित दिक्कतें अधिक होती हैं|
गर्भधारण इन महिलाओं में बीमारी की तीव्रता बढ़ा भी सकता है,या शांत बीमारी को फिर से उभार सकता है|इस बीमारी से पीड़ित गर्भवती महिलाओं को ऐसे स्त्री रोग विशेषज्ञ के समपर्क में रहना चाहिए जो संधिवात विशेषज्ञ के सामंजस्य से कार्य करता हो|
गर्भ निरोध का सबसे सुरक्षित उपाय कंडोम या डायाफ्राम व् शुक्राणुनिरोधक क्रीम है|
गर्भ निरोधक गोलियां जिसमे सिर्फ प्रोजेस्टेरोन होता है,भी सुरक्षित रूप से इस्तेमाल की जा सकती है व् कुछ प्रकार की कॉपर टी भी सुरक्षित रूप से इस्तेमाल की जा सकती है| जिन गर्भ निरोधक गोलियों में एस्ट्रोजन की मात्र अधिक होती है,कभी कभी इस बीमारी को बढ़ा सकती हैं|
एंटीफोस्फोलिपिड एंटीबॉडी शरीर में पाये जाने वाले फॉस्फोलिपिड के अथवा फॉस्फोलिपिड को चिपकने वाले प्रोटीन के विरुद्ध बनती हैं| तीन एंटीफोस्फोलिपिड एंटीबाडी जिनके विषय में अधिक जानकारी है,वे हैं एंटीकार्डिओलिपिन एंटीबॉडी, बीटा २ जी पी १ व् लुपस एंटी कोअगुलांट | यह लुपस से पीड़ित लगभग ५०% बच्चों में पायी जाती हैं परन्तु लुपस के आलावा भी कुछ अन्य बीमारियों में यह एंटीबॉडीज पायी जा सकती हैं|
यह एंटीबाडीज रक्त कोशिकाओं में रक्त का थक्का बनने को बढ़ावा देती हैं जिससे यह कई तकलीफें पैदा करती हैं, जैसे रक्त कोशिकाओं में रक्त का जमाव,रक्त में प्लेटलेट कणों की कमी हो जाना,सर में तेज़ दर्द होना जिसे माइग्रेन कहा जाता है व् चमड़ी पर नीले धब्बे दिखाई देना( लिविडो रेटिक्युलॅरिस) इत्यादि| दिमाग की रक्त कोशिकायें पतली होने के कारन अधिक प्रभावित हो सकती है व् इससे स्ट्रोक भी पड़ सकता है| पैरों की रक्त कोशिकायें व् गुर्दे भी इससे प्रभावित हो सकते हैं|
जब इन एंटीबाडीज के होने से शरीर के अंगों पर प्रभाव पड़ता है तब उसे एंटीफोस्फोलिपिड सिंड्रोम कहा जाता है|
इन एंटीबाडीज का महत्व गर्भावस्था में विशेष तर है क्योंकि वहां यह नाल की छोटी रक्त कोशिकाओं में रक्त का थक्का बना सकती है जिससे भ्रूण में शिशु को उचित मात्र में रक्त नहीं प्राप्त हो पाता|इस कारण अपरिपक्व गर्भपात, माँ का रक्तचाप गंभीर रूप से बढ़ जाना(प्री एक्लेम्पसिया),मृत प्रसव(स्टिल बर्थ ) व् शिशु का वज़न बहुत काम होना जैसी तकलीफें हो सकती हैं| इन एंटीबाडीज के कारणवश कुछ महिलाओं को गर्भ धारण करने में भी तकलीफ हो सकती है|
अधिकांश बच्चे जिनमे यह एंटीबाडीज पायी जाती हैं,इनके दुष्प्रभाव से पीड़ित नहीं होते परन्तु इनके दुष्प्रभावों का खतरा बना रहता है|इसीलिए इस विषय पर अनुसन्धान चल रहा है जिससे इन एंटीबाडीज से हो सकने वाले दुष्प्रभावों को पहले ही टाला जा सके| फिलहाल इन बच्चों को एस्प्रिन की दवा काम मात्र में दी जाती है| एस्प्रिन की दवा जब काम मात्र में दी जाती है तब वह प्लेटलेट की चिपकन को काम करके रक्त का थक्का बनने से रोकती है व् इससे रक्त का गाढ़ापन काम होता है| किशोरावस्था में धूम्रपान व् गर्भनिरोधक गोलिओं का प्रयोग भी इसमें वर्जित है|
जब इस कारन से रक्त का थक्का (थ्रोम्बोसिस)हो जाता है तब रक्त को पतला करने व् जमाव या थक्का बनने से रोकने के की एंटी कोऔगुलांट दवाओं का उपयोग किया जाता है,जिनमे सबसे अधिक उपयोग वारफारिन नामक दवा का होता है| यह दवा प्रतिदिन ली जाती है व् इसका असर देखने के लिए नियमित तौर से रक्त की जांच भी करवाई जाती है| इसी प्रकार हीपैरीन नामक एक इंजेक्शन भी त्वचा के नीचे प्रतिदिन लगाया जा सकता है|यह दवाएं चलने की अवधि इस पर निर्भर करती है की रक्त का जमाव किस प्रकार का है व् उसकी गंभीरता कितनी अधिक है|
जो महिलायें इन एंटीबाडीज के कारण गर्भधारण न कर पा रही हों,उन्हें भी कुछ दवाएं दी जा सकती हैं जिससे इनका प्रभाव काम हो जाये| इन महिलाओं को वारफारिन नहीं दी जा सकती क्योकि उससे नवजात शिशु को जन्मजात अपरच्ना(मालफॉर्मेशन) होने की सम्भावना होती है|एस्प्रिन व् हेपरिन का उपयोग गर्भावस्था में भी किया जा सकता है|यदि इन दवाओं का उपयोग किया जाये व् स्त्री रोग विशेषज्ञ के नियमित संपर्क में रहा जाये तो लगभग ८०% महिलायें गर्भधारण कर सकती हैं|
नीओनेटल लुपस भ्रूण व् नवजात शिशु को हो जाने वाली एक बीमारी है जो कभी कभी पायी जाती है|यह बीमारी गर्भवती स्त्री की नाल के द्वारा भ्रूण में कुछ एंटीबाडीज के चले जाने के कारण होती है| इन एंटीबाडीज को एंटी रो व् एंटी ला कहा जाता है|यह विशिष्ट एंटीबाडीज लुपस से पीड़ित लगभग एक तिहाई महिलाओं में पायी जाती हैं परन्तु सभी के शिशुओं को इनके दुष्प्रभाव नहीं होते| दूसरे हाथ पर कभी कभी यह बीमारी उन महिलाओं के शिशुओं को भी ओ सकती है जिनमे यह एंटीबाडीज नहीं भी होती|
नीओनेटल लुपस सामान्य लुपस से भिन्न होता है| इस बीमारी के लक्षण ३-६ माह की उम्र तक समाप्त होने लगते हैं व् सामानयतः कोई दुष्प्रभाव नहीं छोड़ते| इस बीमारी से पीड़ित अधिकांश बच्चों में त्वचा पर लाल धब्बे पाये जाते हैं,जो धुप में जाने से बढ़ जाते हैं व् जनम के कुछ दिन या कुछ हफ़्तों में दिखाई देने लगते हैं| यह धब्बे सामानयतः कुछ दिन में समाप्त हो जाते हैं व् अपने पीछे कोई निशान भी नहीं छोड़ते| इसके अलावा जो दूसरी तकलीफ आमतौर से इन बच्चों में पायी जाती है वह है रक्त कणों का काम होना|यह भी आमतौर पर गंभीर नहीं होता व् इसके लिए कोई विशेष उपचार की आवश्यकता नहीं पड़ती|
कभी कभी नवजात शिशु को एक विशेष प्रकार की ह्रदय में होने वाली तकलीफ हो सकती है जिसको कनजेनाइटल हार्ट ब्लॉक कहते हैं| इस हार्ट ब्लॉक में शिशु के ह्रदय की धड़कन असामान्य रूप से धीमी पड़ जाती है|यह विकृति स्थाई होती है|इसका निदान शिशु के जन्म के पहले भ्रूण के ह्रदय के अल्ट्रासाउंड के द्वारा १५ से २५ हफ्ते की गर्भावस्था में किया जा सकता है| यदि इस का निदान जन्म की पहले ही हो जाये तब कुछ दवाओं की मदद से इसका इलाज संभव है|जब इस का निदान शिशु की जन्म की बाद होता है तब अधिकतर शिशुओं को पेस मेकर की आवश्यकता पड़ती है|यदि किसी महिला की एक शिशु को यह तकलीफ हो तब दुसरे शिशु को यही तकलीफ होने का जोखिम १०-१५% तक रहता है|
इस बीमारी से पीड़ित बच्चे सामान्य रूप से पनपते हैं व् आमतौर से उन्हें कोई तकलीफ नहीं होती व् उन्हें बाद में लुपस की तकलीफ होने का जोखिम भी बहुत काम होता है|